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________________ शुद्ध बनाता है । डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य ने ठीक ही लिखा है-'जब अनेकान्तदर्शन चित्त में मध्यस्थ भाव, वीतरागता और निष्पक्षता को उदय करता है वहाँ स्याद्वाद वागी में निर्दोपता आने का पूरा-पूरा अवसर देता है ।' भगवान महावीरका समय वह समय था जब उपनिषदवादी विश्व सत है या असत, उभय या अनुभव के अनिश्चितता में थे...... जब महात्मा बुद्ध विचार वैविध्य से बचने या टालने के लिए या तो मौन थे या शिष्यों को मौन रहने का उपदेश दे रहे थे...उस समय इन विविध मान्यताओं को विरासत में लेकर महावीर के पंथ में दीक्षित होने वालेोको जिज्ञासा की पूर्ण तृप्ति आवश्यक थी अन्यथा व्यावहारिक संघर्ष भविष्य के लिए बड़ा अनिष्टकारी हो जाता । अतः महावीर ने वीतरागता और अहिंसा के उपदेश और बाह्य व्यवहार शुद्धि के साथ चित्त के अहंकार और हिंसा को बढ़ानेवाले सूक्ष्म मतभेदों को भी निर्मूल किया । उन्होंने वस्तु के उत्पाद व्यय और प्रौव्य परिणामी स्वरुप को समझाया और द्रव्य एवं पर्याय की दृष्टि से उसकी नित्यता एवं अनित्यता को स्पष्ट किया । सचमुच इस सापेक्ष दृष्टि ने शिष्यों को निर्द्वन्द्व बनाया । कथन के साथ उससे भी विशेष वस्तु के परीक्षण पर जोर दिया । अग्नि गरम या ठंडी इस चर्चा को मतभेद का विषय बनाने से क्या यह अच्छा नहीं कि उसको छूकर सही दशा को परखा जाए । 'स्याद्वाद' यह स्पष्ट करता है कि भाई ! किसी वस्तु का एक ही बार एक ही दृष्टि से पूरा परिचय दे देना असंभव है । यह स्थोत विद्यमान गुणधर्मों के साथ अविद्यमान गुणों या अविवक्षित गुगों के अस्तित्व का भी द्योतन करता हैं । इसीलिए विद्वानों ने इस स्यात को एक सजगताका प्रतीक भी माना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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