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________________ कर रहे हैं उसमें अन्य गुण या स्वभाव भी विद्यमान हैं ही । इससे यह प्रतिफलित या सिद्ध होता है कि वस्तु में अनेक धर्म अर्थात् गुण विद्यमान हैं एक अंश में सभी धर्म या स्वभाव पूर्ण हैं यह कथन असंभव है और ऐमा कथन अपूर्ण होगा । वस्तु एक ही निश्चित गुण धर्म स्वाभावी है यह कथन ही एकांत दृष्टि युक्त जो अन्य गुणों की उपस्थिति का अस्वीकार या तिरस्कार है जो संघर्षों का जनक है । इसी वैचारिक या मानसिक संघर्ष को टालने के लिये वस्तु के अनेक स्वरूपी रूप को स्वीकार करते हुए उसे वाणी की शुद्धता भी जैनदर्शनों ने प्रदान की । जनदर्शन के इस ' स्यात' में मात्र स्यात नही अपितु 'स्यादस्ति' का प्रयोग किया है देखिए स्यात साथ संलग्न अस्ति एक स्वीकृति है अर्थात अपेक्षित है । सर्व प्रथम 'अस्ति' यानी हकारात्मक या विवेचात्मक दृष्टि को ही स्वीकार किया है । किसी वस्तु में निहित तथ्य या लक्षण का 'नास्ति' या मात्र 'शायद' की अनिश्चितता में प्रयुक्त नहीं किया। इससे इतना तो तय हो ही जाता है कि कथित तथ्य के 'अस्ति' बोध का स्वीकार है । इस अस्ति में स्वीकृत वस्तु के स्वभाव या गुणधर्म का स्वीकार करते हुए भी हम यह नहीं कहते कि 'यह ही है। हम कहते हैं यह भी है अर्थात् अन्य गुण या धर्म भी हैं । तात्पर्य कि हम जिसका कथन कर रहे हैं उसके उपरांत के गुणों का हम निषेध नहीं कर रहे । अपने विचारों की स्थापना जैसा कि हम वस्तु के स्वरुप को वर्तमान में निहार रहे है-करते हुए उसके प्रति कन्य दृष्टिकोणों का निषेध नहीं करते । परिणाम स्वरुप अपने कथन के साथ अन्य के कथन में विरोधी नहीं बनते और वैचारिक संघर्ष नहीं करते । वाणी में कटुता नहीं लाते और वैचारिक आक्रमण से बचते हुए सूक्ष्म हिंसा से भी बच जाते हैं । इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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