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प्रस्तावना
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आचार व्यवहार मान्य रक्खा है अतः उसका उतना तिरस्कार नहीं हुआ जितना कि लौकाशाह का ।
कडुअाशाह स्वयं लौंकाशाह को घृणा की दृष्टि से देखता था। यहाँ तक कि कडुअाशाह ने अपने नये मत के लिये जो नियम बनाए, उनमें एक यह भी नियम बनाया है कि लौकामत बालों के वहाँ से अन्न-जल नहीं लेना चाहिए। इस निषेध का कारण शायद यह हो सकता है कि लौकाशाह जैनधर्म के मुख्यस्तंभ रूप जैनशास्त्र और जैनमन्दिर मूर्ति को नहीं मानता था। इतना ही नहीं पर वह तो सामयिक, पौषह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान, और देवपूजा को भी नहीं मानता था, इसी कारण ऐसे अधममत का अन्नजल ग्रहण करना कडुआशाह ने अच्छा नहीं सममा होगा।
कडुअाशाह के मत की एक संक्षिप्त पटावली श्रीमान् बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर कलकत्ता वालों के ज्ञान भण्डार में विद्यमान है। उसकी नकल “जैन साहित्य संशोधिक" त्रैमासिक पत्रिका वर्ष ३ अंक ३ के पृष्ट ४९ में मुद्रित हो चुकी है, उसीका सारांश लिख आन मैं पाठकों के अवलोकनार्थ सेवा में उपस्थित करता हूँ। आशा है कि इसको आद्योपान्त ध्यान से पढ़कर उस समय की परिस्थिति और ऐसे असंयमी गृहस्थों के मत निकालने के कारण को ठीक समझ कर इन उत्सत्रवादियों के मत के पाप से अपने भाप को बचावेंगे।
उपकेशगच्छीय मुनि ज्ञानसुन्दर . पाली (मारवाड़) १-५-३६ ईस्वी
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