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प्रस्तावना जैन-साधुओं में प्राचार शैथिल्य अधिक आगया होगा, इससे लौकाशाह आदि को नये मत निकालने पड़े । इसके प्रत्युत्तर में यही कहना पर्याप्त होगा कि चैत्यवासियों के साम्राज्य में जो आचार शिथिलता जैनसाधुनों में व्यापक थी, वह शिथिलता तो सोलहवीं शताब्दी में हाजिर नहीं थी। और चैत्यवासियों के साम्राज्य में भी शासन रक्षक हरिभद्रसूरि जैसे धुरंधर विद्वान् विद्यमान थे, उन्होंने चैत्यवासियों के विरोध में खड़े होकर अर्थात् धर्मरक्षा के निमित्त पुकार उठाई, और अपने कार्य में सफलता भी प्राप्त की परन्तु नया मत निकालने की उस समय किसीने भी धष्टता नहीं की जैसे कि लौकाशाह आदि ने अपने समय में की थी।
शास्त्र और इतिहास की दृष्टि से देखा जाय तो यह पता पड़ता है कि सदा सर्वदा साधुओं का आचार व्यवहार एक सा नहीं रहता है। खास भगवान् महावीर के विद्यमानत्व में भी, एक साधु के संयमपर्यव, दूसरे साधु के संयमपर्यव में अनन्त गुणा हानि वृद्धि थी । इसी से तो श्रीभगवती सूत्र २५ वें शतक में पांचप्रकार के संयति और छः प्रकार के निग्रन्थ बतलाए हैं,
और इनके पर्यव में अनन्त गुण हानि वृद्धि बतलाई है। पर इन बातों का सम्यग्ज्ञान उन गृहस्थों को कहाँ था ? यदि थोड़ी देर के लिए यह भी मान लें कि उस समय के जैनयतियों में आचार शैथिल्य अधिक होगो तो इसका अर्थ यह तो नहीं होता है कि ऐसी दशा में गृहस्थ लोग कदाप्रहकर जैनागमों से विरुद्ध नया धर्म निकाल शासन में विरोध बढ़ावें । आवश्यकता तो यह थी कि यदि भाचार शिथिलता थी तो उसे ही सुधार कर ठीक करना था।
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