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( ३१८) (४) सिरोही की राज सभा में शिव धर्मियों और यतियों के श्रापस में शास्त्रार्थ हुआ उनमें जैन यति हार गए, तब लुपक कुँवर जी पाए और उन्होंने शैवों को परास्त किया, पर कृतघ्नी लोगों ने उस समय के इतिहास में इस विषय के दो शब्द भी कहीं नहीं लिखे । . (५) शाह ने जिन व्याकरण, काव्य, न्याय छन्द और अलंकारादि शास्त्रों की निन्दा की है उन्हों शास्त्रों के विशेषणों के साथ धर्मसिहजी आदि अपने नेताओं की विद्वता जाहिर की है। पर धर्मसिंहजी आदि की विद्वत्ता पर सच्चा प्रकाश डालने वाला कोई भी साधन शाह को प्राप्त नहीं है। हाँ, धर्मसिंहजी ने श्रीपार्श्वचंद्रसूरिकृत टब्बा में मूत्ति विषयक अर्थ का फेर फार कर अपने नाम से टब्बा जरूर बनाया है। और वह दरियापुरी टब्बा के नाम से पहिचाना जाता है। पर यह चोरी का काम तो अपठित श्रारजियाँ ( साध्वियों) भी कर सकती हैं। इस में धर्मसिंहजी की क्या विद्वता हुई। दूसरा कार्य धर्मसिंहजी ने कई सूत्रों के टब्बों की सूची (हुन्डी) और कई कोष्ठक ( यन्त्र) भी बनाए हैं जो कि आजकल का एक साधारण छात्र भी बना सकता है। किन्तु शाह इस पर भी फूले नहीं समाते हैं । शाह यदि ऐसों ही को विद्वान समझते हैं तो ये विद्वान् शाह को हो. मुबारिक हों।
(६) जैसे बादशाह के पास जैन श्रावक थानमल और कर्मचन्द बछावत आदि रहते थे, इसी प्रकार शाइ ने एक सरवा नामक श्रावक की घटना घडडाली है, किन्तु इतिहास में सरवा की गंध तक भी नहीं मिलती है।
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