SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३१५ ) मर्यादा का यथेष्ट पालन करते हैं वे ही महावीर की 'तान कहलाने के योग्य हैं । X X X X यों तो इस मत के लोग मुँह से दया दया की पुकार किया ही करते हैं । परन्तु वास्तव में इन लोगों के हृदय बड़े हो कठोर होते हैं । इनका मुख्य कारण इस मत पर अनार्य मुस्लिम संस्कृति का शिक प्रभाव पड़ना है । जरा बतौर नमूना के देखिये : (१) श्रीमान् लौकाशाह ने एक जैनकुलमें जन्म लिया और त्रिकाल सामायिक तथा परमेश्वर की पूजा करने वाले थे इनके पूर्वजों को जैनाचार्यों ने मांस मदिरा और दुराचार व्यभिचार आदि दुर्व्यसनों से छुड़वा कर जैन बनाया था । क्या इस प्रकार जैनों के आभार से लदा हुआ निर्मलाऽन्त : ( ) करण लोकाशाह सहसा बिना किसी अनार्य संस्कृति के प्रभाव के पड़े क्या जैनाऽऽ गम, जैन साधु, सामायिक, पौसह प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान, दान और देवपूजा के विरुद्ध हो सकता है ? कदापि नहीं । वीर वंशावली से पाया जाता है कि एक ओर तो यतियों द्वारा लौंकाशाह का अपमान और दूसरी ओर आपके मित्र लेखक सैयद का संयोग मिलना, इत्यादि कारणों से आवेश में आया हुआ मनुष्य क्या नहीं कर सकता है क्योंकि उस समय उसे कर्त्तव्याऽकर्त्तव्य का कुछ भी ज्ञान शेष नहीं रहता । जैसे कि स्वामी भीखमजी ने अपमान के कारण कितना अनर्थ कर डाला । यह बात तो साधारण है कि बिना किसी अनार्य संस्कृति का प्रभाव पड़े ऐसा कृतघ्नी और कठोर हृदय कैसे हो सकता है ? जिस प्रकार लौंकाशाह और आपके अनुयायियों कोयवनों का संसर्ग हुआ उसकी संक्षिप्त तालिका निम्न लिखित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy