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हैं यह आपत्ति जरूर शेष रह जाती है । देखें स्वामीजी इसका क्या प्रतिवाद करते हैं ?
ऐ नों० की ऐतिहासिकता
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श्रीमान् संत बालजी का यह दृढ़ निश्चय है कि लौंकाशाह ने अपनी जिन्दगी में कभी किसी प्रकार की दीक्षा नहीं ली, अपितु गृहस्थ दशा में ही काल किया, और यह मत केवल मुनि श्री संत बालजी का हो नहीं किन्तु अनेक ऐतिहासिक प्रमाण, लौंकागच्छ के श्रीपूज्यों और यतियों को पटावलिएँ आदि इस मान्यता से पूर्ण सहमत हैं । और हाल ही में स्थानकवासियों की जो कान्फ्रेन्स अहमदाबाद में हुई थी उसमें भी स्वामी मणिलालजो को उक्त पुस्तक "प्रभुवीरपटावली" को अवलोकन कर उसे सर्व सम्मति से अप्रामाणिक घोषित किया है । वामी मणिलालजी वि० सं० १६३६ में तपागच्छीय यति कान्ति विजय द्वारा लिखित दो पत्रों पर पूर्ण विश्वास रखते हैं चाहे वे पत्र कल्पित ही क्यों न हो और स्वयं श्रीमान् सन्तबालजी भी उन्हें बनावटी क्यों न माने, परन्तु मुनिश्री मणिलालजी की श्रद्धा उन पर से तनिक भी नहीं टलती है ।
अब हम निम्न लिखित पैरेप्राफों में पंजाब और कोटा को कल्पित पटावलियों पर थोड़ा बहुत विचार विमर्श करते हैं पाठक इसे ध्यान से पढें कि इन पटावलियों में सत्यता का सहारा कहाँ तक लिया गया है ।
(१) मूर्तिपूजा की दृष्टि से देखा जाय तो स्थानक - वासियों की मान्यताऽनुसार भी प्रभु महावीर की दूसरी शताब्दी में सुविहित्त श्राचार्यों द्वारा मूर्तिपूजा प्रचलित हुई और इस प्रवृत्ति
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