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________________ ऐ• नों० की ऐतिहासिकता ३०४ कब संभव है कि इनका सफेदझूठ अब सत्य मान लिया जाय ? । क्योंकि आजकल वह जमाना नहीं है कि भोली भाली औरतों या भद्रिक लोगों के सामने कह दिया जाय कि हमारे भाचार्य स्वल्प संख्या में थे, और वे दूर २ प्रदेशों में रहते थे। और इसे आज कल के लोग प्रमाणाऽभाव से ही सत्य मान लें ? यह एक वारगी ही असंभव है। आजकल तो इतिहास की इतनी शोध खोज हो रही है कि प्रत्येक प्रान्त के कोने २ का इतिहास प्रकाश में आ रहा है। परन्तु कहीं भी इस बात का पता नहीं चला कि लौंकाशाह के पूर्व भी किसी प्रान्त, जंगल पहाड़, नगर, गाँव, गुफा या चूहे के बिल में भी ऐसा एक मनुष्य हो, जो जैन कहला करके भी जैन मन्दिर मूर्तियों का विरोधी हो और जैनाऽऽगम तथा जैनाचार्यों को मानने से इन्कार करता हो ? क्या हजार वर्षों का अर्सा में एक धर्म अखिल भारतीय जैनों का विरोध करने वाला एक प्रकार गुप्त रह सकता है ? कदापि नहीं। तथा मूर्ति पूजक समुदाय में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि इन २००० वर्षों में किसी ने ऐसे मत के लिए दो शब्द भी लिखे हों “जैनों में एक ऐसा समुदाय है जो मूर्तिपूजा नहीं मानता है" एवं जैनधर्म में भगवान् महावीर के बाद २००० वर्षों में पूर्वधर श्रुतकेवली और बड़े ही धर्म धुरन्धर विद्वान् हुए जिन्होंने विविध विषयों पर नाना निबन्ध लिख जैनों का साहित्य कोश सहस्र सहस्र रश्मियों के सदृश चमका दिया, परन्तु वह सारा का सारा साहित्य मूर्तिपूजक समुदाय की ओर से ही लिखा मालूम होता है । यदि उस समय मूर्ति विरीधी समुदाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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