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________________ २७९ ये सुधारक थे या बिगाड़क कर दिया होता तो आज जैनशासन को जो बुरा अनुभव करना पड़ा है, उसका स्वप्न भी नहीं आता । जैसे कि दिगम्बरी समाज के अलग होते ही उनका जाति व्यवहार अलग कर दिया तो इतना क्लेश कदाग्रह नहीं रहा। दोनों समुदाय अपनी २ जाति में स्वतन्त्र हैं । पर हमारी ही यह कमनसीबी है कि धर्म में भेद होते हुए भी हमने इनके साथ जाति सम्बन्ध शामिल रक्खा, जिससे आज हमको इतनी बड़ी भारी हानि उठानी पड़ी तथा अब भी उठा रहे हैं । आपसी फूट और कुसम्प बढ़ने के साथ श्राज आचार पतितता और अन्य देवी देवताओं की पूजा की प्रचुरता बढ़ी है । यदि हम इन नास्तिकों को प्रथम ही से जाति बहिष्कृत या अपने से अलग कर देते तो जैन समाज में ये झूठे बखेड़े पैदा नहीं होते । ये हानिएँ केवल मूर्तिपूजकों के ही पहले पड़ी हों सो नहीं, किन्तु लौकागच्छीयों को भी इस विरोध से पर्याप्त हानिएँ हुई हैं। लवजी धर्मसिंहजी ने अपनी अलग दुकान जमा कर लौंकों की सत्ता कमजोर कर दी, इसी प्रकार स्थानकवासियों में भीखमजी आदि ने अपना पाखण्ड स्वतन्त्र फैलाकर लवजी की लाईन को भी लथेड़ दिया । परन्तु इन सब मतधारियों का यदि मूल देखा जाय तो सब ने जैनाचार्यों के संगठित श्राविक समुदाय को अपनो विषोक्त मत वादिनी छुरी से टुकड़े टुकड़े कर अपना अपना उपासक बनाया है। किसी भी मतधारी ने एक भी जैनेतर को अपना श्रावक बनाया हो यह किसी भी प्रमाण से पुष्ट नहीं होता । इन नये नये मतधारियों ने जैनों का संगठन छिन्न भिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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