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जैन साधुओं का धर्मलाभ
वे सावधान होजाय । तब साधु जैसे महाविवेकी पुरुष, चोर को तरह गुपचुप किसी के घरमें जाना कैसे पसन्द करसकें ? उनको तो धर्मलाभादि संकेत अवश्य करना ही चाहिये ! अब रही आहार पानी की बात,सो जो श्रावक साधुओं का प्राचार व्यवहार जानता है वह तो कदापि सावद्य को निर्वद्य कहेगा नहीं कारण ऐसा करने से अल्पायुष्य का बन्ध होता है और जो साधुओं का रागी ही नहीं है उपे ऐसा करने की जरूरत हो क्या ! दूसरा, साधु बड़े ही विवेकी होते हैं । वे स्वयं अपनी प्रज्ञा से सब कुछ जान सकते हैं और साधु जो दोष टालते हैं वह भी व्यवहारसे क्योंकि निश्चय तो अतिशय ज्ञान वाले ही जानते हैं परन्तु लोकव्यवहार न जानने वाले साबु कभी चोरों की तरह गुप चुप गृहस्थों के घर में प्रवेश करने से धोखा खाकर लज्जित होते हैं इसके लिये एक टुक शहर का उदाहरण है कि एक विवेकहीन स्था० साधु ने एक गृहस्थ के घर में गुपचुप चोर की तरह प्रवेश किया। उस समय उस घर में स्त्री पुरुष एकान्त में काम क्रीड़ा कर रहे थे । साधु ने अन्दर जाकर कहा, बाई सूजति है ? उस पुरुष को इतना गुस्सा पाया कि साधु के एक लप्पड़ जमादी । उस समय उसको सहसा कहना पड़ा कि जो संवेगी साधु संकेत पूर्वक गृहस्थों के घर में जाते हैं यह बहुत अच्छा है समझे न। ___आगे चलकर ऐ० नो० पृष्ट १९ पर शाहने दुष्काल में मूर्ति के सामने जैनसाधुओं द्वारा अन्नादि द्रव्य भेंट करवाने की कल्पना कर डाली इत्यादि, पर शाहको सोचना चाहिए था कि मैं जिसका निषेध कर चुका हूँ पुनः उसका उल्लेख कैसे करूँ ? शाह एक जगह तो लिखते हैं कि
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