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शाह की दुधार तलवार
विषय में नितान्त अज्ञता का परिचय दिया है। पर शाह को यह मालूम नहीं कि जैन साधुओं को गमन समय में दंडा रखना श्री दशवैकालिक सूत्र, प्रश्नव्याकरण सूत्र, भगवतीसूत्र, व्यवहारसूत्र निशीथसूत्र आदि धार्मिक प्रन्थों में परम आवश्यक बतलाया है,
और ये सब सूत्र,३२ सूत्रों के अन्तर्गत हैं तथा शाह स्वयं इन्हें मानते हैं । इतना हो क्यों स्था० साधु अमोलखर्षिजी ने पूर्वोक्त सूत्रों के हिन्दी अनुवाद में साधुओं के दंडा रखने का विधान अच्छी तरहसे कियाहै। पक्षपातका चस्मा दूरकर शाह जैनशास्त्र सुनता तो महापुरुषों को निन्दा कर कर्म बन्ध करने का समय नहीं आता । "धर्मलाभ" के विषय में तो खास भगवान् महावीर प्रभु ने भी सुलसा चरित्र में सुलसा को धर्मलाभ कहलाया था। नन्दीसेन मुनि ने वेश्या के घर जाकर जब उसे 'धर्मलाभ दिया, तब वेश्या ने कहा, यहाँ तो अर्थलाभ है, इस उपाख्यान को हमारे साधुमार्गी भी मानते हैं। तथा हरकेशी मुनि ने भी यज्ञ मण्डप में जाकर सर्वप्रथम तत्रस्थ ब्राह्मणको धर्मलाभ ही कहा था । इसी प्रकार आगे चलकर भगवान् महावीर प्रभु के ३० वर्ष बाद आचार्य श्रीस्वयंप्रभसूरि ने श्रीमालनगर की राजसभा में प्रवेश करते वक्त जब राजा ने सामने आकर आचार्यश्री को वन्दना की तो आचार्य श्रीस्वयंप्रभसूरी ने राजा को धर्मलाभ दिया । शिवपुराण नामक एक प्राचीन प्रन्थ में भी इस बात का उल्लेख है कि जैनमुनियों को जब कोई आकर नमस्कार करता है तब वे प्रत्युत्तर में सर्व प्रथम उन्हें धर्मलाभ कहते हैं। पर शाह का द्वेष
* स्थानकवासी साधु मणिलालजी अपनी “प्रभुवीर परावली" नामक पुस्तक के पृष्ट ८ १र शिवपुराण अध्याय २१ श्लोक २६ को मदत
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