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________________ मूर्तियों की प्राचीनता परमेश्वर की साक्षी से प्रतिज्ञा करने वाले शाह ने लौंकाशाह की चोट मात्र ले जैन तीर्थङ्करों को प्रतिमाओं की जिस प्रकार निन्दा की है उसे यहाँ बतलाने की अब कुछ आवश्यकता शेष नहीं रह जाती । क्योंकि शाह के समय में और सांप्रत के समय में निशादिन का अन्तर है । जो लोग द्वादश वर्षीय दुष्काल में शिथिलाचारियों द्वारा मूर्तिपूजा का आरम्भ मानते थे वे ही आज भगवान् महावीर प्रभु के बाद केवल ८४ वर्षों में ही सुविहिताचाय द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तिपूजा का अस्तित्व अङ्गीकार करते हैं । इस हालत में उस असामयिक चर्चा को यहाँ स्थान देना अनुप युक्त है, परन्तु केवल खास स्थानकमार्गी मुनि श्री मणिलालजी का ही एक उदाहरण दे के यह बतला देना चाहते हैं कि अब मूर्तिपूजा विषयक खण्डन मण्डन करने की किंचित् भी जरुरत नहीं है । वे कहते हैं : -- २५३ सुविहित आचार्यों ए श्री जिनेश्वर देव नी प्रतिमा नुं अवलम्बन बताव्यं अने तेनुं जे परिणाम मेलववा आचायों ए धार्यं हतुं ते परिणाम केटलेक अंशे श्रव्यं पण खरूं । अर्थात् जिनेश्वर देव नी प्रतिमानी स्थापना अने तेनी प्रवृति (पूजा) थी घणा जैनों जैनेतर थता अटक्याने ते करवामां आचार्यों ए जैन समाज पर महान् उपकार कहवामां जरा ए अतिशयोक्ति नथी " कर्यो छे प्रेम 66 प्रभुवीर पटावली पृ० १३१ मूर्तिपूजा और शत्रुञ्जय, गिरनार आदि तीर्थों की पुष्टी के लिए आपने केवल जैन धार्मिक साहित्य का ही नहीं, पर कई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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