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इनके अलावा पंजाबी और प्रदेशी साधमार्गी समुदाय तथा मारवाड़ी एवं काठियावाड़ समुदाय के सैकड़ों साधु असत्यको त्याग सत्य मार्ग का अवलम्बन किया अर्थात् मुँहपत्ती के ढोरा को तोड़ मूर्तिपूजा को स्वीकार कर इसका ही प्रचार किया और कर रहे हैं जिनमें महान् पण्डित रन मुनि श्रीचतुरविजयजी महाराज, पं० रंगविमलजी पं० रूपमुनिजी गुलाबमुनिजी ठा० ४मुनि कनकचंदजी जिनचंदजी प्रतिचंद्रजी ध्यानचंदजी, पद्मविमलजी कमलविजयजी म० शिवराजजी, रत्नचंदजी, रूपविजयजी मग्न. सागरजी, रत्नसागरजी, विवेकविजयजी, समताविजयजी, इत्यादि इतना ही क्यों पर यह प्रथा तो आज भी विद्यमान हैं हालही में विद्वान एवं स्थानकवासी समुदाय में प्रतिष्ठित स्वामि कानजी, कल्याणचन्द्रजी गुलाबचंदजी वगैरह मुँहपती का डोरा तोड़ मूर्ति पूजा स्वीकार की है स्वामी कर्मचंदजी शोभाचंदजी मूलचंदजी वगैर विद्वानों ने भी अपनी दोषित मान्यता का त्याग कर मूर्ति पूजा रूपी शुद्ध और सनातन मार्ग का ही अबलम्बन किया हैं इतना ही क्यों पर स्थानकवासी समाज के सेकड़ों विद्वान् साधु अपनी कायरता से वाड़ा बाहर नहीं निकल सकते हैं पर वे समय समय परम पवित्र एवं आगम विहित तीर्थ श्रीशमुँजय श्रीगिरनार श्रीशिक्खर राणकपुर श्रावू ओसियाँ और कापरड़ाजी जैसे तीर्थो की यात्रा कर खूब आनंद लुटते हैं और कई तेरहपन्थी साधु भो भिखमजी का मत को दयादान हीन निकृष्ट समझ कर वे भी मुँहपत्ती का डोरा तोड़ जैन दोक्षा को स्वीकार की है तेरहपन्थि से निकले हुए साधुओं के करीबन ३०-३१ नम्बर मेरे पास आये हैं। केवल साधुओं ने ही शास्त्राभ्यास कर स्थानकवासी
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