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________________ १६१ लौं० भनु० की संख्या हुए जैनों की है। इनमें स्थानकमार्गी या तेरहपंथी समाज की क्या बहादुरी है। वे चाहे मंदिर को मानें चाहे स्थानक को। इसमें स्थानकवासियों को फूलने की क्या बात है। यदि स्थानकवासियों में जरा भी हिम्मत है तो वे किसी विधर्मी अजैनों को जैन बना के अपनी योग्यता दिखावें। . जैसे किसी साहूकार से खिलाफ होकर गुमास्ता जुदा होगया और, सेठ की बेपरवाही से उसका माल वह दबा ले और उससे वह अपने को बहादुर और व्यवसायी कहे तो, नहीं कहाजो सकता, क्योंकि वह तो सेठ की कमाई हुई संपत्ति है। उसकी बहादुरी तो तब जानी जा सकती है कि जब वह स्वयं पुरुषार्थ से पैसा पैदा करे । यही बात यहाँ है। मूर्तिपूजकों की बेपरवाही से और उनके प्रचार नहीं करने से, स्थानकमागियों ने तत्तत् प्रान्तों को भद्रिक जैन जनता को ही अपने मत में घुसेड़ दी है, न कि, अजैनों को जैन बना अपना उपासक बनाया है। यह जनता तो पूर्वाचार्यों से प्रतिबोधित थी ही इसमें विशेषता को कुछ बात नहीं है। हाँ! तेरहपन्थी और स्थानकमार्गियों की यह विशेषता तो जरूर हुई है कि उन भद्रिक जनता को कृतज्ञ के बदले कृतघ्नी बना, जिन आचार्यों का और आगमों का महान उपकार मानना था उल्टो उनकी निंदा करना सिखाया है । शेष में अब हम यही कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार लौंकाऽनुयायियों ने अन्यान्य विषयों में मत भेद खड़ा कर ल काशाह के जीवन चरित्र में ममेला खड़ा किया है तद्वत् इनके देहान्त का भी अभी तक कोई स्थिर मत नहीं हुआ है, उसी का निदर्शन हम अगले प्रकरण में कराएँगे । पाठक प्रेम पूर्वक उसे पढ़ें! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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