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________________ १५७ लौं० अनु० की संख्या। का उद्योत (!) किया । और सैकड़ों, हजारों जैन तथा स्थानकमागियों को अपना अनुयायी बनाकर अपना मत जारी किया। बाद में देशी स्थानकमार्गियों ने परदेश में जाकर अपने धर्म का उद्योत कर देशी साधुओं के श्रावकों में फूट डाल अपना श्रावक बनाना शुरू किया। और आज पर्यन्त भी एक टोले का साधु दूसरे टोले के समकित वाले को बहका कर अपना अनुयायी बनाने की कोशिश कर रहा है। इस प्रकार यह नाशक, धर्म का उद्योत रूपी यन्त्र यथा क्रम आज भी चालू है, और यथाऽवसर दो चार भ्रान्त श्रावकों को मिथ्या प्रपञ्च से फुसला कर अपना श्रावक बना लेने में ही धर्म का उद्योत और जैन समाज की उन्नति समझ रहा है। लौकाशाह ने भी जैन धर्म का इससे बढ़कर कोई भी वास्तविक उद्योत नहीं किया, यह मानना नितान्त युक्तियुक्त और प्रमाण संगत ही है। . - अब जरा फिर इतिहास की ओर दृष्टि पात कीजिये, और विचारिये किं सोलहवीं शताब्दी का तो इतिहास एकान्त अंधेरे में नहीं है, और इसी कारण लौकाशाह की भी एक जबर्दस्त घटना अंधेरे में नहीं रह सकती, फिर भी शायद रह गई होतो. इसके सिवाय हतभाग्य और बदनसीब कोई हो ही नहीं सकता। तत्वतः लौंकाशाह तो एक सामान्य वणिक बनिया था, और वह भी बिलकुल बूढ़ा और अपंग, उस समय न तो उसमें साहस था और न थी योग्यता, और न कोई उसका सच्चा सहायक ही था। लौंकाशाह के समय जैन जनता की संख्या सात करोड़ थी, उनमें से यदि लौकाशाह ने सौ पचास प्रादमियों को अपनी तरफ फाँट दिया हो तो, इसमें बहादुरी की कौन बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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