SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपने प्राचाम नहीं आता है तक लिखने का मारले प्रकरण सोलहवाँ १२८ धारणा थी कि लौकाशाह एक साधारण गृहस्थ और लिखाई का काम कर अपनी आजीविका चलाता था। इतना ही नहीं पर खास स्था० साधु जेठमलजी ने भी वि० सं० १८६५ में समकित सार नामक ग्रन्थ में (जो खास मूर्ति के खंडन में बनाया है) पृष्ठ ७ पर साफ तौर से लिखा है कि लौंकाशाह पहिले नाणावटी का धंधा करता था, बाद में पुस्तक लिखने का काम करने लगा, फिर समझ में नहीं आता है कि इन जेठमलजी के अनुयायी अपने प्राचार्य के शब्दों को मिथ्या ठहराने को क्यों उतारू हुए हैं ? क्या आज के लिखे पड़े नये विद्वान् स्थानकमार्गी अपने धर्मस्थापक गुरु लौकाशाह को सामन्य व्यक्ति मानने में शरमाते हैं। क्योंकि इसीसे तो वाड़ी० मोतीशाह ने अपनी ऐतिहासिक नोंध में, साधु मणिलालजी ने अपनी प्रभुवोर पटावली में, साधु संतबालजी ने अपनी “धर्म प्राण लौकाशाह" नामक लेखमाला में, घसीट मारा है कि लौकाशाह बड़ा भारी विद्वान् था, यही नहीं किन्तु संतबालजी ने तो यहां तक लिख दिया है, कि लौंकाशाह उस समय भारत की सब भाषाओं का जानकार था, अब संस्कृत और प्राकृत भाषा का तो वह सर्व श्रेष्ठ विद्वान हो इसमें कहना ही शेष क्या है। पर वास्तव में लौंकाशाह को साधारण गुर्जर भाषा का भी ज्ञान था या नहीं, इस बात की पुष्टि में भी स्वामीजी के पास कोई प्रमाण नहीं है। क्योंकि लौंकाशाह की खुद की बनाई हुई एकाध ढाल या चौपाई भी आज तक नहीं मिली है । फिर ये लोग किस आधार पर यह हवाई इमारत खड़ी करते हैं। इस बीसवीं सदी में ऐसे प्रमाण शून्य लेखों की विद्वद् समाज क्या कीमत करता है ? या तो यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy