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प्रकरण चौदहवाँ
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को किसी प्रकार की आपत्ती भी नहीं है । क्योंकि महावीर के बाद दूसरी शताब्दी में सुविहिताचार्यों के समय मूर्तिपूजा प्रचलित तो आप स्वीकार कर ही चुके हैं। और वीरात् दूसरी शताब्दी के सुविहिताचायों के निर्माण किये श्रागमों को ( व्यवहारसूत्रादि ) आप प्रमाण मानते हो जब उनके बनाये आगम प्रमाण है तो उनकी चलाई मूर्त्तिपूजा भी प्रमाणिक मानना तो स्वयं सिद्ध है और मूर्ति बिना आप का भी तो काम नहीं चलता है किसी भी रूप से मानों पर मूर्ति तो आपने भी मानी है। खैर पब्लिक में आज नहीं तो कल पर मूर्तिपूजा माने बिनो छुटकारा नहीं है आप नहीं तो आपके होने वाले मानेंगें जैसे आपके पूर्वजों कि अपेक्षा आप को आगे कदम बढाना पड़ा है इसी तरह आपके पीछे होने वालों को श्राप से
* १ मोरवांड़ गोरी ग्राम में स्थानकवासी साधु हर्षचन्दजी की पाषणमय मूर्त्ति उपाश्रय के द्वार पर विराजमान है । आपके भक्त लोग नलयेरादि से पूजा करते हैं मारवाड़ सादड़ी ग्राम में ताराचंदजीकी पाषाण मय मूर्ति है और अष्टद्रव से हमेशा पूजा होती है । और स्थानकवासी साधु साध्वियों दर्शन करने को जाते है । और भी जेतपुर-रायपुर- बडोतअंबालादि बहुत स्थानों में स्थानकवासी साधुओं की समाधी पादुका और मूर्तियों है और उनकी सेवा पूजा भक्ति स्थानकवासी समाज पूज्य भाव से करते है । स्थानकवासी साधुओं के फोटु तो प्रायः घर घर में और अनेक पुस्तकों में पाये जाते हैं। यह सब मूर्त्तिपूजा नहीं तो और क्या है ? जिसकी गति का ठिकाना नहीं उन को तो पूजना और तीर्थंकर देव जिन्होंने निश्चय मोक्ष प्राप्त किया उनकी प्रतिष्ठित मूर्ति का अनादर करना इससे बढ़ के अज्ञानता ही क्या हो सकती है जरा पक्षपात का चश्मा उतार कर विचार करो कि न्याय क्या कहता है।
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