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लौकाशाह और मूर्तिपूजा:
पश्चाताप श्रवश्य किया परन्तु पकड़ी हुई बात एक दम छुट नहीं सकती हैं, तथापि उन विरोध किये हुवे विधानों पर इतना जोर नहीं दिया गया इसी का ही फल है कि जिस क्रियाओं का लौकाशाह ने प्रारंभ में विरोध किया उसी क्रियाओं को आपके अनुयायी धीरे धीरे अपने मत में स्थान देने लगे जैसे लौंकाशाह ने कसी जैनागम को नहीं माना था पर बाद आपके अनुयायियों को श्री पार्श्व चन्द्रसूरि द्वारा गुर्जर भाषानुवाद किये हुए बत्तीस सूत्र हाथ लगे, उनको मानने लगे और बत्तीस सूत्रों में श्रावक के सामायिक पौसह प्रतिक्रमणादि का विशिष्ट विधान न होने पर भी लोगों की बहुलता के कारण इन सत्र क्रियाओं को मान देकर स्वीकार करनी पड़ी, लौंकाशाह ने यतियों के साथ द्वेष के कारण दान देना भी निषेध किया परन्तु बाद में आपके मत में साधु होजाने से दान देने को भी छुटी दे दी, लौंकाशाद ने मूत्ति पूजा का भी विरोध किया था, पर आपके अनुयायियों ने तो अपने मत में मूर्ति पूजा को भी स्थान देदिया । इतना ही नहीं पर लौंकागच्छ के पूज्य मेघजीस्वामी तथा श्रीपालजी और पूज्य आनंदजी, सेंकड़ों साधुओं के साथ जैनाचार्यों के पास पुनः दीक्षा ग्रहण कर मूर्ति पूजा के कट्टर उपदेशक एवं प्रचारक बन गये और शेष रहे हुए लौंकाशाद के अनुयायी और साधुवर्ग ने मूर्ति पूजा को शाख सहमत समझ के स्वीकार कर लिया । इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने तो अपने उपाश्रयों में देरासर बनवा
१ पं० लावण्य समय उ० कमल संयम, मुनि वीका, लौंकागच्छीय यति भानु चन्द्रादि के लेख हम इसी ग्रन्थ के परिशिष्ट में देदेते हैं देखो विस्तार से ।
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