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________________ मालूम । अन्य विद्वानोंकी रचनाओं और लेखोंमें भी इसका कोई उल्लेख देखनेमें नहीं आया । उनके जीवनके सम्बन्धमें भी हमें इसके सिवाय और कुछ विदित नहीं है कि वे पुन्नाटसंघके आचार्य थे, उनके गुरुका नाम कीर्तिषेण था और वर्द्धमाननगरके नन्नराजवसति नामके जैनमन्दिरमें रहकर उन्होंने शक संवत् ७०५ (विक्रम संवत् ८४० ) में यह ग्रन्थ समाप्त किया था । इच्छा थी कि इस ग्रन्थकी अन्तरङ्ग बातोंपर भी कुछ प्रकाश डाला जाय-यह बतलाया जाय कि प्राचीन जैनधर्मके अनुयायी कितने उदार थे, उस समयकी सामाजिक व्यवस्था कितनी सुधरी हुई थी, विवाह कितनी प्रौढ अवस्थामें होते थे, वर चुननेके लिए कन्यायें कितनी खतन्त्र थीं, ब्राह्मणक्षत्रिय-वैश्यों में किस प्रकार परस्पर विवाहसम्बन्ध होते थे और धर्मका द्वार किस प्रकार पुण्यात्माओंके समान पापियों और व्यभिचारियों के लिए भी खुला हुआ था; परन्तु समयके अभावसे यह न हो सका । यदि बन सका, तो एक स्वतन्त्र लेखके द्वारा इस इच्छाकी पूर्ति की जायगी । तबतक इस ग्रन्थके विद्वान् पाठकोंसे प्रार्थना है कि स्वाध्याय करते समय वे स्वयं इन बातोंपर विचार करें और जनसाधारणमें जो इस विषयका अज्ञान फैल रहा है, उसे जैसे बने तैसे दूर करके जैनधर्मकी वास्तविक प्रभावना करनेका पुण्य सम्पादन करें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003657
Book TitleHarivanshpuranam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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