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________________ हिन्दी-सारांश जैन-यह बात तो वर्णों की व्यंजक ध्वनियोंमें भी लागू हो सकती है। क्योंकि वे न तो वर्णरूप हैं और न स्वयं अपनी व्यंजक हैं। दूसरे, स्वाभाविक योग्यतारूप संकेतसे शब्दोंको हमारे यहाँ अर्थप्रतिपत्ति कराने वाला स्वीकार किया गया है और लोकमें सब जगह भाषावर्गणाएँ मानी गई हैं जो शब्द रूप बनकर सभी श्रोताओं द्वारा सुनी जाती हैं। - मीमांसक-'वेदका अध्ययन वेदके अध्ययनपूर्वक होता है, क्योंकि वह वेदका अध्ययन है, जैसे आजकलका वेदाध्ययन ।' इस अनुमानसे वेद अपौरुषेय सिद्ध होता है ? .. जैन-नहीं, क्योंकि उक्त हेतु अप्रयोजक है-हम भी कह सकते हैं कि 'पिटकका अध्ययन पिटकके अध्ययनपूर्वक होता है, क्योंकि वह पिटकका अध्ययन है, जैसे आजकलका पिटकाध्ययन।' इस अनुमानसे पिटक भी अपौरुषेय सिद्ध होता है। मीमांसक-बात यह है कि पिटकमें तो बौद्ध कर्ताका स्मरण करते हैं और इसलिये वह अपौरुषेय सिद्ध नहीं होसकता। किन्तु वेदमें कर्ताका स्मरण नहीं किया जाता, अतः वह अपौरुषेय सिद्ध होता है ? - जैन-यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि बौद्धोंके पिटक सम्बन्धी कत्र्त स्मरणको आप प्रमाण मानते हैं तो वे वेदमें भी अष्टकादिकको को स्मरण करते हैं अर्थात् वेदको भी वे सकतृक बतलाते हैं, अतः उसे भी प्रमाण स्वीकार करिये। अन्यथा कोनोंको अप्रमाण कहिए। अतः कर्ताके अस्मरणसे भी वेद अपौरुषेय सिद्ध नहीं होता और उस हालतमें वह पौरुषेय ही सिद्ध होता है। ११. परतः प्रामाण्य सिद्धि - मीमांसक-वेद स्वतःप्रमाण है, क्योंकि सभी प्रमाणोंकी प्रमाणता हमारे यहां स्वतः ही मानी गई है, अतः वह पौरुषेय नहीं है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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