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स्याद्वादसिद्धि होती है जो भिन्न होते हैं और उपादानोपादेयभाव अभिन्न (एक) में होता है। ___बौद्ध-बात यह है कि पिता-पुत्रमें देश-कालकी अपेक्षासे होनेवाला नैरन्तर्य नहीं है और उसके न होनेसे उनमें उपादानोपादेयभाव नहीं है। किन्तु पूर्वोत्तर क्षणोंमें नैरन्तर्य होनेसे उपादानोपादेयभाव है ?
जैन-यह कहना भी युक्त नहीं है, कारण बौद्धोंके यहाँ स्व. लक्षणरूप क्षणोंसे भिन्न देशकालादिको नहीं माना गया है और तब उनकी अपेक्षासे कल्पित नैरन्तर्य भी उनके यहां नहीं बन सकता है । अतः उससे उक्त क्षणोंमें उपादानोपादेयभावकी कल्पना और पिता-पुत्र में उसका निषेध करना सर्वथा असंगत है।
अतः कार्यकारणरूपसे सर्वथा भिन्न भी क्षणों में कार्यकारणभावकी सिद्धिके लिये उनमें एक अन्वयी द्रव्यरूप सन्तान अवश्य स्वीकार करना चाहिए। .एक बात और है । जब आप क्षणों में निबोध प्रत्ययसे भेद स्वीकार करते हैं तो उनमें निर्बाध प्रत्ययसे ही अभेद ( एकत्वएकपना ) भी मानना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही वस्तुमें सुप्रतीत होते हैं।
यदि कहा जाय कि दोनोंमें परस्पर विरोध होनेसे वे दोनों वस्तुमें, नहीं माने जा सकते हैं तो यह कहना भी सम्यक नहीं है, क्योंकि अनुपलभ्यमानोंमें विरोध होता है, उपलभ्यमानोंमें नहीं। और भेद अभेद दोनों वस्तुमें उपलब्ध होते हैं। अतः भेद और अभेद दोनों रूप वस्तु मानना चाहिए ।
यहां एक बात और विचारणीय है । वह यह कि प्रार (बौद्धों) के यहाँ सत् कार्य माना गया है या असत् कार्य? दोन
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