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________________ स्याद्वादसिद्धि जन- यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि विकल्पको आपने अप्रमाण माना है । अपि च, यह कल्पनात्मक व्यावृत्ति वस्तुओंमें सम्भव नहीं है अन्यथा वस्तु और अवस्तुमें सार्य होजायगा। इसके सिवाय, खण्डादिमें जिस तरह अगोनिवृत्ति है उसी तरह गुल्मादिमें भी वह है, क्योंकि उसमें कोई भेद नहीं हैभेद तो वस्तुनिष्ठ है और व्यावृत्ति अवस्तु है । और उस हालतमें 'गायको लाओ' कहनेपर जिसप्रकार खण्डादिका पानयन होता है उसीप्रकार गुल्मादिका भी आनयन होना चाहिये। यदि कहा जाय कि 'अगोनिवृत्तिका खण्डादिमें संकेत है, अतः 'गायको लाओ' कहनेपर खण्डादिरूप गायका ही आनयन होता है, गुल्मादिका नहीं, क्योंकि वे अगो हैं-गो नहीं हैं तो यह कहना भी संगत नहीं है । कारण, अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होता है। खण्डादि में गोपना जब सिद्ध होजाय तो उससे गल्मादि में अगोपना सिद्ध हो और उनके अगो सिद्ध होनेपर खण्डादि में गोपना की सिद्ध हो । ___ अगर यह कहें कि 'वहनादि कार्य खण्डादिमें ही संभव हैं, अतः 'गो' का व्यप्रदेश उन्हींमें होता है, गुल्मादिकमें नहीं' तो यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि वह कार्य भी उक्त गुल्मादिमें क्यों नहीं होता, क्योंकि उस कार्यका नियामक अपोह ही है और वह अपोह सब जगह अविशिष्ट है। तात्पर्य यह कि अपोहकृत वस्तु में धर्मभेदकी कल्पना उचित नहीं है, किन्तु स्वरूपतः ही उसे मानना संगत है । अतः जिस प्रकार एक ही चित्त पूर्व क्षणकी अपेक्षा कार्य और उत्तर क्षणकी अपेक्षा कारण होनेसे एक साथ उसमें कार्यता और कारणतारूप दोनों धर्म वास्तविक सिद्ध होते हैं उसी प्रकार सब वस्तुएं युगपत् अनेकधर्मात्मक सिद्ध हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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