________________
स्याद्वादसिद्धि
"
'अद्य निराश्रया श्रीः, निराधारा धरा, निरालम्बा सरस्वती, निष्फलं लोकलोचनविधानम् निःसारः संसारः, नीरसा रसि कता, निरास्पदा वीरता इति मिथः प्रवर्तयति प्रणयोद्गारिणीं वाणीम्......... -पृ० १३१ ।
२८
इस गद्यके पद-वाक्योंके विन्यास और अनुप्रासको देखते हुए यही प्रतीत होता है कि यह गद्य मौलिक है और वादोभसिंहकी अपनी रचना है । हो सकता है कि उक्त परिमल कविने इसी गद्य के पदों को अपने उक्त श्लोक में समाविष्ट किया हो । यदि उल्लिखित पद्यकी इसमें छाया होती तो 'अद्य' और 'निराधारा धरा' के बीच में 'निराश्रया श्रीः' यह पद्य फिर शायद न आता । छायामें मूल ही तो आता है । यही कारण है कि इस पदको शास्त्रीजी और प्रेमीजी दोनों विद्वानोंने पूर्वोल्लिखित गद्यमें उद्धृत नहीं किया - उसे अलग करके और 'अद्य' को 'निराधारा धरा' के साथ जोड़कर उपस्थित किया है ! अतः यह दूसरो बाधा भी उपरोक्त समयकी बाधक नहीं है ।
(ख) पुष्पसेन और ओडयदेव
वादीभसिंहके साथ पुष्पसेन मुनि और ओडयदेवका सम्बन्ध बतलाया जाता है । पुष्पसेनको उनका गुरु और ओडयदेव उनका जन्म नाम अथवा वास्तव नाम कहा जाता है। इसमें निम्न पद्य प्रमाणरूपमें दिये जाते हैं
पुष्पसेन मुनिनाथ इति प्रतोतो,
दिव्यो मनुहृदि सदा मम संनिदध्यात् । यच्छतिः प्रकृतमूढमतिर्जनोऽपि, वादीभसिंहमुनिपुङ्गवतामुपैति ॥
&
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org