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प्रस्तावना
लगभग माना जाता है । अतः वादीभसिंह इनसे पहलेके हैं।
४. आ०विद्यानन्दने आसपरीक्षामें जगत्कर्तृत्वका खण्डन करते हुए ईश्वरको शरीरी अथवा अशरीरी मानने में दूषण दिये है और उसकी विस्तृत मीमांसा की है। उसका कुछ अंश टीका सहित नीचे दिया जाता है ... 'महेश्वरस्थाशरीरस्य स्वदेहनिर्माणानुपपत्तेः । तथा हि
देहान्तसद्विना तावत्स्वदहं जनयद्यदि । : .. तदा प्रकृतकार्थेऽपि देहाधानमनर्थकम् ॥ ८NE देहान्तरात्स्वदेहस्य विधाने चानवस्थितिः।। . . . . तथा च प्रकृतं कार्य व.र्यादीशी न जातुचित ।।१३॥ , यथैव हि प्रकृतकार्यजननायापूर्वशरीरमीश्वरों निष्पादयति तथैष सच्छरीरनिष्पादनायापूर्वशरीरान्तरं । विषादयेदिति कथमनवस्था चिनिघात ?..... - यथाऽनीशः स्वदेहस्य कर्त देहान्तरान्मतः । - पूर्व स्मादित्यनादित्वान्नान वस्था प्रसज्यते ॥ २१९ तथेशस्यापि पृच स्माई हाइ हान्तरोद्भवात् । नानवस्थेति यो ब्रयात्तस्थानीशत्वमीशितुः ॥२२॥ अनीशः कर्मदे हेनाऽनादिसन्तानवतिना। . . यथैव हि सकमाणस्तद्वन्न कथमीश्वरः ॥२३॥ . . 'प्रायः यही कथन चादीभसिंहने स्याद्वादसिद्धिकी सिर्फ ढाई कारिकाओंमें किया है और जिसका पल्लवन एवं विस्तार उप. युक्त जान पड़ता है । वे ढाई कारिकाएँ ये हैं
देहारम्भोऽप्यदेहस्य वक्तृत्ववदयुक्तिमान् । देहान्तरेण देहस्य यद्यारम्भोऽनवस्थितिः ॥ अनादिस्तन्त्र बन्धश्चेत्त्यक्तोपात्त शरीरता । । देखो, न्यायक. द्वि भ', प्र. पृ. १६ ।
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