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प्रस्तावना और मधु) तथा हिंसादि पांच पापोंका त्याग विहित है। जिनसेनायेने उक्त परम्परामें कुछ परिवर्तन किया और मधुके स्थानमें आको रखकर मद्य, मांस, जुआ तथा पांच पापोंके परित्यागको ट मूलगण बतलाया। उसके बाद सोमदेवने तीन मकार और च उदुम्बर फलोंके त्यागको अष्ट मूलगुण कहा, जिसका अनुरण पं० आशाधरजी आदि विद्वानोंने किया है। परन्तु वाभसिंहने क्षत्रचूडामर्माण में स्वामी समन्तभद्र प्रतिपादित पह। परम्पराको ही स्थान दिया है और जिनसेन प्रादिकी परम्पओंको स्थान नहीं दिया। यदि वादीभसिंह जिनसेन और मदेवके उत्तरकालीन होते तो वे बहुत सम्भव था कि उनकी [म्पराको देते अथवा साथमें उन्हें भी देते। जैसा कि पं० शाधरजी आदि उत्तरवर्ती विद्धानोंने किया है। इसके अलावा, नसेन (ई० ८२८) ने आदिपुराणमें इनका स्मरण किया है, साकि पूर्व में कहा जा चुका है। अतः वादीमसिंह जिनसेन और सोमदेवसे, जिनका समय क्रमशः ईसाकी नवमी और रामी शताब्दी है, पश्चाद्वर्ती नहीं हैं-पूर्ववर्ती हैं।
३. न्यायमञ्जरीकार जयन्तभट्टने कुमारिलकी मीमांसाश्लोकर्तिक गत 'वेदम्याभ्यायनं सर्व' इस, वेदको अपौरुषेयताको सिद्ध रनेके लिये उपस्थित की गई, अनुमानकारिकाकान्यायमञ्जरी सम्भवतः सर्व प्रथम ' भारताध्ययनं सर्व' इस रूपसे खण्डन या है, जिसका अनुसरण उत्तरवर्ती प्रभाचन्द्र', अभयदेव' १ अहिंसा सत्यमस्तेय स्वस्त्री-मितवसु-प्रहौ । 'मद्यमांसमधुत्यागैस्तेषां मूलगुणाष्टकम् ॥ क्षत्र० ७.२३॥ २ देखो, न्यायकुमुद पृ.७३१, प्रमेयक.पृ.३६६ । ३ देखा, सन्मति टी. पृ. ४३।
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