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________________ मस्तावना 雅 अतः वादीभसिंहसूरि स्वामी समन्तभद्रके पश्चाद्वर्ती अर्थात वक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के बादके विद्वान हैं । २. अकलङ्कदेव न्यायविनिश्चयादि ग्रन्थोंका भी स्याद्वादसद्धिपर असर है जिसके तीन तुलनात्मक नमने इस प्रकार हैं १) प्रसिद्धधर्मिधर्मत्वेऽप्यन्यथानुपपत्तिमान् । F1 7 हेतुरेव यथा सन्ति प्रमाणानीष्टसाधनात् ॥ - न्यायविनि० ० का० १७६ । पक्षधर्मत्व-वैकल्येऽप्यन्यथानुपपत्तिमान् ॥ हेतुरेंच यथा सन्ति प्रमाणष्टसाधनात | - स्था०४-८७, ८ (२) समवामस्य वृक्षोऽत्र शाखास्वित्यादिसाधनैः || अनन्यसाधनः सिद्धिरहो लोकोत्तरा स्थितिः ॥ -न्यायवि का १०३, १०४ इह शाखासु धृतोऽयमिति सम्बन्धपूर्विका । बुद्धिरिहेदबुद्धित्वात्कुण्डे दधीति बुद्धिवत् ॥ - स्था० ५-८ । (३) श्रप्रमत्ता विवक्षेय ं श्रन्यथा नियमाध्ययात । इष्ट सत्यं हितं वक्तुमिच्छा दोषवती कथम् ॥ Jain Education International -न्यायवि० का० ३५६ । " सार्वज सहजेच्छा तु विरागेऽप्यस्ति सा हि न । रागाद्य पड़ता तस्माद्भवेद्वक्तैव सर्ववित् ।। स्था० ६-१० । अतः वादीभसिंह अकलङ्कदेव के अर्थात् विक्रमकी सातवीं शताब्दी के उत्तरवर्ती विद्वान् हैं । ३. प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धिके छठे प्रकरण की १६ वीं कारिकामें और प्रभाकरका नामोल्लेख करके उनके अभिमत भावनानियोगरूप वेदवाक्यार्थका निर्देश किया गया है। इसके अलावा, कुमारिलभट्टके मीमांसाश्लोकवार्तिकसे कई कारिकाएं भी उद्धत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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