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स्याद्वासिद्धि
नष्ट हो जाता है और यह नियम है कि 'कर्त्ता ही फलभोक्ता होता है' अतः आत्माको कथंचित् नाशशील - सर्वथा नाशशील नहींस्वीकार करना चाहिये । और उस हालत में कर्तृत्व और फलभोक्तृत्व दोनों एक ( आत्मा ) के बन सकते हैं। यह प्रकरण ४४ कारिकाप्रां में पूरा हुआ है ।
३. युगपदनेकान्तसिद्धि — इसमें वस्तुको युगपत् — एक साथ वास्तविक अनेकधर्मात्मक सिद्ध किया गया है और बौद्धाभिमत अपोह, सन्तान, सादृश्य तथा संवृति आदिको युक्तिपूर्ण समीक्षा करते हुये चित्तक्षणोंको निरन्वय एवं निरंश स्वीकार करने मैं एक दूषण यह दिया गया है कि जब चित्तक्षणों में अन्वय व्यापि द्रव्य) नहीं है - वे परस्पर सर्वथा भिन्न हैं तो 'दाताको ही स्वर्ग और वधकको ही नरक हो' यह नियम नहीं बन सकता । प्रत्युत इसके विपरीत भी सम्भव है— दाताको नरक और वधकको स्वर्गे क्यों न हो ? इस प्रकरण में ७४ कारिकाए हैं ।
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४. क्रमानेकान्तसिद्धि - इसमें वस्तुको क्रमसे वास्तविक अनेक धर्मोवाली सिद्ध किया है । यह प्रकरण भी तीसरे प्रकरण की तरह क्षणिकवादी बौद्धको लक्ष्य करके लिखा गया है । इसमें कहा गया है कि यदि पूर्व और उत्तर पर्यायोंमें एक अन्वयी द्रव्य न हो तो न तो उपादानोपादेयभाव बन सकता है, न प्रत्यभिज्ञा बनती है, न स्मरण बनता है और न व्याप्तिग्रहण ही बनता है, क्योंकि क्षणिकैकान्त में उन ( पूर्व और उत्तर पर्यायों) में एकता सिद्ध नहीं होती, और ये सब उसी समय उपपन्न होते हैं जब उनमें एकता (अनुस्यूतरूपसे रहनेवाला एकपना ) हो । अतः जिस प्रकार मिट्टी क्रमवर्ती स्थास - कोश- कुशूल-कपाल-घटादि अनेक पर्याय-धर्मोसे युक्त है उसी प्रकार समस्त वस्तुएं भी क्रम से
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