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________________ स्याहादसिद्धि तो बीच में बिल्कुल ही गायब हैं उससे जान पड़ता है कि ग्रन्थकार ने इसे सम्भवतः पूरे रूपमें ही रचा है। और इसलिये यदि यह अभी नष्ट नहीं हुआ है तो असम्भव नहीं कि इसका अनुसन्धान होनेपर यह किसी दूसरे जै नेतर शास्त्रभण्डारमें मिल जाय । यह प्रसन्नताकी बात है कि जितनी रचना उपलब्ध है उसमें १३ प्रकरण तो पूरे और १४ वाँ तथा अगले २ प्रकरण अपूर्ण और इस तरह पूर्ण-अपूर्ण १६ प्रकरण मिलते है । और इन सब प्रकरणोंमें (२४+४४+४+१३+३२+२२+२२+२१ +२३+३+२८+१६+२१+७०+१३८+६३ =)६७० जितनी कारिकाएं सन्निवद्ध हैं। इससे ज्ञात हो सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ कितना महान और विशाल है। दर्भाग्यसे अब तक यह विद्वत्संसारके समक्ष शायद नहीं आया और इसलिये अभी तक अपरिचित तथा अप्रकाशित दशामें पड़ा चला आया । (ख) भाषा और रचनाशैली - दार्शनिक होने पर भी इसको भाषा विशद और बहुत कुछ सरल है। आप ग्रन्थको सहजभावसे पढ़ते जाइये, विषय समझ में आता जायेगा। हाँ, कुछ ऐसे भी स्थल हैं जहाँ पाठकको अपना पूरा उपयोग लगाना पड़ता है और जिससे ग्रन्थकी प्रौढता, विशिष्टता एवं अपर्वताका भी कुछ अनुभव हो जाता है। यह ग्रन्थकारकी मौलिक स्वतन्त्र पद्यात्मक रचना है---किसी दूसरे गद्य या पद्यरूप मूलकी व्याख्या नहीं है। इस प्रकारकी रचनाको रचनेकी प्रेरणा उन्हें अकलंकदेवके न्यायविनिश्चयादि और शान्तरक्षितादिके तत्वसंग्रहादिसे मिली जान पड़ती है । धर्मकीर्ति (६२५ई०) ने सन्तानातरसिद्धि, कल्याणरक्षित (७०० ई०) ने बाह्यार्थसिद्धि, धर्मोत्तर (ई० ७२५) ने परलोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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