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________________ ८४ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! की भावना लुप्त हो गई। मनुष्य स्वभाव से ही लोभी और स्वार्थी होता है। फिर उसको मिले ऐसे धर्मोपदेश जिनमें उसे धर्म-उपार्जन करने में स्वार्थ का किञ्चित भी त्याग करने की आवश्यकता नहीं। फलतः ऐसे उपदेशों का क्या असर हो सकता है, पाठक स्वयं विचार लें। सामाजिक प्राणी के लिये ऐसे उपदेशों के अक्षर अक्षर सत्य मान लेने के नतीजे पर विचार करके मेरे हृदय में यह भावना उत्पन्न हुई कि सर्वज्ञों ने समाजहित के ऐसे परोपकारी कार्यों को क्या वास्तव में ही एकान्त पाप और अधर्म बताया है ? जरा शास्त्रों के रहस्य को देखना तो चाहिये। इसी विचार से शास्त्रों का अवलोकन करना प्रारम्भ किया तो कई बातें ऐसी देखने में आई जिन्हें सर्वज्ञ तो क्या पर अल्पज्ञ भी अपने मुंह से कहने में अपने आपको असत्य-भाषी महसूस करने लगेंगे। ऐसी बातों को देख कर यह विचार हुआ कि सर्वज्ञ कहलाने वालों के ऐसे असत्य बचन होने नहीं चाहिये ; अतः परीक्षा के नाते इन शास्त्रों के ऐसे स्थलों को देखना चाहिये जिन्हें हम प्रत्यक्ष की कसौटी पर कस सकें। प्रत्यक्ष की कसौटी पर कसने के लिये भूगोल-खगोल और वे विषय जिनका गणित से खास सम्बन्ध है, मुझे सर्वथा उपयुक्त प्रतीत हुए। मैने इन विषयों पर देख-भाल करना प्रारम्भ किया जिसका परिणाम इन लेखों के रूप में आपके समक्ष उपस्थित हो ही रहा है और होता रहेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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