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________________ जेन शास्त्रों की असंगत बातें ! केवल जैन शास्त्रों की ही ऐसी बातों के विषय में इस प्रकार प्रश्न मैं क्यों कर रहा हूं, इसका जरा खुलासा कर दूं। क्या अन्य शास्त्रों में ऐसी बात नहीं हैं ? अवश्य हैं, और जैन शास्त्रों से कहीं अधिक हो सकती हैं ; मगर समाज-हित के साधनों पर कुठाराघात करने वाले भावों के उत्पन्न होने की गुंजाइश जिस प्रकार जैन शास्त्रों से प्राप्त हुई है, वैसी सम्भवतः अन्य किन्हीं शास्त्रों से हुई नजर नहीं आती। अन्य किसी भी शास्त्र के आधार पर सामाजिक मनुष्य को यह उपदेश नहीं मिल रहा है कि शिक्षा-प्रचार करने में पाप है-भूख-प्यास से तड़फ कर मरते मनुष्य को अन्न-पानी की सहायता करने में पाप है-दुःखी-गरीब, अनाथ, अपंग की सहायता और रक्षा करने में पाप है -अस्वस्थ माता, पिता, पति आदि की सेवासुश्रषा करने में पाप है-यानी समाजिक जीवन में सहूलियतें एवं उन्नति करने वाले जितने भी सुकार्य हैं, सब पाप ही पाप हैं। सदगृहस्थ के यदि धर्म है तो केवल सामायिक, प्रतिक्रमण करने, व्रत-प्रत्याखान करने, उपवास-तपस्या करने और साधुसन्तों की सेवा-भक्ति करने में है। इनके अलावा गृहस्थ चाहे समाज-हित के और परोपकारी कार्य स्वार्थ रहित होकर भी करे, सब एकान्त पाप और अधर्म हैं।* ऐसे उपदेशों का यह असर होना स्वाभाविक ही है कि बहुत लोगों की परोपकार ___ *चूं कि सारे जैन समाज की ऐसी विचार-धारा नहीं है इसलिये यह स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि लेखक की आलोचना समस्त जैन समाज के प्रति लागू नहीं हो सकती। हां, जैनियों में ऐसी मान्यता के लोग भी हैं, जिनके लिये लेखक का अभिप्राय सत्य मालूम पड़ता है। --सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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