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________________ (संसार के सार्वजनिक लाभ के कामों को निस्स्वार्थ भाव से करने पर भी गृहस्थ को एकान्त पाप लगे-ऐसे भाव पुष्ट होने की कचित सम्भावना है। यद्यपि आगम सूत्रों को मानने वालों में भी सभी इस प्रकार एकान्त पाप होना नहीं मानते ; परन्तु एकान्त पाप मानने वालों की संख्या भी इस समय कई हजारों तक पहुंच चुकी है। मुझे ऐसा लगा कि इस प्रकार के भावों का प्रचार न केवल मानव समाज के हितों के लिये ही घातक हैं अपितु संसार के इतर प्राणियों के लिये भी अत्यन्त हानि कारक है। इस लिये मनुष्यत्व के नाते ऐसे शास्त्रों को अक्षर अक्षर सत्य मानने की अन्ध-श्रद्धा को भंग करना नितान्त आवश्यक है। और इसके लिये एक ही उपाय है कि शास्त्रों में आये हुए प्रत्यक्षमें असत्य प्रमाणित होनेवाले विषयों को सर्व साधारण के समक्ष रखा जाय, ताकि जन-साधारण का मस्तिष्क अन्ध-श्रद्धा को तिलांजलि देकर बुद्धिवाद को ग्रहण करने में समर्थ हो सके। मेरा यह विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक में जितनी सामग्री दी जा चुकी है यदि न्याय और बुद्धि पूर्वक उनपर विचार किया जाय तो शास्त्रों को अक्षर अक्षर सत्य मानने की अन्ध श्रद्धा को मस्तिष्क से हटा देने के लिये पर्याप्त है। यद्यपि इस में आई हुई सामग्री शास्त्रों में पाये जाने वाले असत्य, असम्भव और अस्वाभाविक तथा पूर्वा पर सर्वथा विरुद्ध विषयों की तुलना में कुछ नहीं के बराबर है तथापि जहाँ एक अक्षर भी अन्यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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