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________________ ( ग ) जा सके । यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जिस सहयोग में किसी प्रकारका अपना ऐहिक स्वार्थ होता है उसे तो प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी प्रेरणा के भी आदान प्रदान करनेकी चेष्टा करता है; परन्तु जिसमें अपना ऐहिक स्वार्थ कुछ भी नहीं होता उसके लिये पुण्य और धर्म जैसे गुप्त लाभ के आकर्षण की प्रेरणा के बिना - भला कोई कुछ किस लिये करेगा ? यानी कतई नहीं करेगा । इसलिये भूख प्यास से गरने वाले को अन्नपानी की सहायता से बचाने, बिपत्तिग्रस्त की सहायता करने, रोगियों की चिकित्सा के लिये चिकित्सालयों का प्रबन्ध करने आदि संसार के ऐसे कामों में यदि अपना कोई ऐहिक स्वार्थ नहीं होता हो अथवा कोई सांसारिक मतलब नहीं सघता हो तो किस लाभ और आकर्षण के लिये एक गृहस्थ व्यर्थ ही इस प्रकार के कामों में प्रवृति करके पापों का उपार्जन करेगा और उन पापों के फल स्वरूप अनन्त दुःख भोगेगा । कोई भूख प्यास से मरता है तो भलेई मरे और कोई विपत्ति भोग रहा है तो भलेई भोगे । उसे क्या पड़ी है कि वह उसमें दस्तन्दाजी करके पाप उपजावे और फलस्वरूप अपने आपको व्यर्थ ही दुःखी बनावे | इस समय जैन कहलाने वालों की करीब १४ लाख की संख्या है जिसमें करीब ४-५ लाख तो दिगम्बर जैन कहलाते हैं जो इन शास्त्रों (आगम सूत्रों) को नही मानते; परन्तु बाकी शेष श्वेताम्बर कहलाने वाले समस्त जैन इन आगमसूत्रों को मानते हैं जिनके किन्हीं पाठों से ऊपर कहे हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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