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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
२.१६
उनके लिये बुभुक्षापूर्ति मूल उद्देश है । परन्तु यहाँ तो मूल उद्देश रागादि कषायों को कम करना या अहिंसादि पाँच यम हैं । अभक्ष्यभक्षण से हिंसा होती है इसलिए वह मूल उद्देश का विघातक ही है । रही निकृष्टता की बात, सो यदि वह वस्तु मूल उद्देशकी बाधक नहीं है तो निकृष्ट हो ही नहीं सकती। अब रही लौकिक निकृष्टता ( जूनी पुरानी अल्पमूल्य आदि ) सो ऐसी निकृष्टता धार्मिकता में बाधक नहीं है, बल्कि कभी कभी तो वह साधक हो जाती है। एक आदमी नये मकान, और नये ठाठबाठ की कोशिश करता है । दूसरा आदमी पुराने मकान और पुराने ठाठवाठ में ही संतोष कर लेता है। ऐसी हालत में दूसरा आदमी ही ज्यादः धर्मात्मा है । इसलिए निकृष्टता का आरोप भी बिलकुल व्यर्थ है ।
खैर, शास्त्र परीक्षा के कुछ और उदाहरण देखिये । यह बात सिद्ध है कि कामवासना को सीमित करने के लिये विवाह है । अगर किसी में यह वासना पैदा ही न हुई होतो उसका विवाह करना कामवासना का सीमित करना नहीं है बल्कि पैदा करना है । अब्रह्मसे ब्रह्मकी तरफ़ झुकना तो धर्म है और ब्रह्मसे अब्रह्मकी तरफ़ झुकना पाप है । यह तो कषायों का बढ़ाना है । अब यदि कोई कहे कि “कामवासना पैदा हुई हो चाहे न पैदा हुई हो, परन्तु अमुक उम्र के भीतर विवाह कर ही देना चाहिये, विवाह न करनेसे पाप होगा" | तो
समझ लो ऐसा कहने वाला कोई पाप प्रचारक धूर्त है । और
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