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परिशिष्ट
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तरुण जैन ' दिसम्बर सन् १६४१ ई०
'लोक' के कथित माप का परीक्षण [ले० श्री मूलचन्द बैद, लाडनूं ]
जैन मतानुसार समस्त विश्व लोक और अलोक में विभाजित है। लोक सीमित है और अलोक असीमित । दूसरे शब्दों में अलोक में लोक निहित है। लोक में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्रलास्तिकाय और काल ये छः मूलद्रव्य हैं एवं अलोक में केवल आकाशास्तिकाय है । लोक की ऊपरी और तल की सीमाएँ क्रमशः सिद्धशिला और निगोद हैं। मोटे तौर पर कमर पर हाथ दिये पैर फैला कर खड़े हुये मनुष्य के आकार का सा लोक माना गया है ।
यह लोक तल से सिरे ( bottom to top ) अर्थात निगोद से सिद्धशिला तक १४ रज्जू लम्बा है | तल में ७ रज्जू चौड़ा है - वहां से क्रमानुसार घटते घटते सात रज्जू की ऊँचाई पर १ रज्जू चौड़ा है। वहां से ३ || रज्जू ऊपर क्रमशः बढ़ते बढ़ते ५ रज्जू चौड़ा और वहां से सिरे पर क्रमशः घटते घटते फिर १ रज्जू चौड़ा है । घटा-बढ़ी की तीन सन्धियों के आधार पर लोक के तीन भाग हो जाते हैं..
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१- अधोलोक - निगोद से पहले नरक तक
२- मध्यलोक - पहले नरक से ज्योतिर्मण्डल तक
३ ऊर्ध्वलोक-ज्योतिर्मण्डल के ऊपर से सिद्धशिला तक उक्त माप की अपेक्षा से लोक का घन रज्जू फल ३४३ बताया गया है, जो समस्तं जैनियों को मान्य है। यदि यह कोई आध्यात्मिक बात होती तो इसका सम्पूर्ण परीक्षण असम्भव हो जाता और साथ में निरर्थक भी, किन्तु एक गणित के तथ्य
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