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जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! १६१ पर श्रद्धा सर्वथा नहीं रहेगी। इसका परिणाम जैनत्व के लिये हितकर नहीं होगा। शास्त्रों में परिवर्तन करने के लिये मैं आपको सब प्रकार से समर्थ समझता हूं। जिन योग्यताओं की इसके लिये आवश्यकता है वे सब आप में मौजूद हैं। आप संस्कृत प्राकृत भाषा के विद्वान और जैन एवम् अन्य दर्शनों के ज्ञाता हैं। मेरा अनुमान है कि आप चाहे तो परिवर्तन कर सकते हैं। इसलिये आपसे विशेष करके प्रार्थना है कि आप इस विषय पर गौर फरमावें। इसपर श्री जी महाराज ने फरमाया कि "थे कह चुका ?" तो मैंने कहां हाँ, संक्षेप में अर्ज कर चुका हूं। इस पर आप फरमाने लगे कि “थांका केई शब्द अनुचित है थां ने सोभा नहीं देवे"। मैने कहा-मुझे तो ऐसा कुछ भी नजर नहीं आया आप फरमावे तो मालुम हो। तो आप फरमाने लगे कि “कूड़े करकट का शब्द थाने नहीं कहना चाहिये"। तब मैंने अर्ज की कि महाराज साहब, मैंने तो मकान में कूड़े करकट का शब्द बतौर औपमा ( उपमा ) के प्रयोग किया है तो आपने फरमाया कि औपमां के लिये भी ऐसे शब्द नहीं होने चाहिये जो सन्मान सूचक न हो। 'म्हे तो शास्त्रोंने बहुत सन्मान की दृष्टि से देखा हानी'। इसपर मैने कहा .
औपमा के रूपमें ऐसे शब्दों की बात मुझे तो कोई एतराज की नहीं नजर आई परन्तु आपको ठीक नहीं जचे तो मैं कूड़े करकट के शब्दों को वापिस लेता हूं। इनके स्थान में आप कोई सुन्दर शब्द समझ लेवें। फिर भी जी महाराज फरमाने लगे कि
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