________________
१७१
जैन शास्त्रों की असंगत ढातें !
आये हुए मद्यवा, मंसंवा मच्छंवा शब्दों का वनस्पति विशेष अर्थ होते हुए भी उन्होंने जान बूझ कर मद्य मांसादि भोजन के लोभ से इन शब्दों के अर्थ को मद्य मांस और मछली ही कायम रखने का प्रयत्न किया हो। साधु जीवन में न उन्होंने कभी मांस खाया और न वे मद्य, मांस खाने के पक्षपाती थे, वल्कि सारे जीवन में मद्य मांस का निषेध करते हुए जैन धर्म
और जैन साहित्य की सेवा की है। शिथिलाचार का दोष लगा कर मद्य मांस भोजन के साथ उनके शिथिलाचार - का सम्बन्ध जोड़ना नितान्त भूल की बात है। यह बात सम्भव है कि उन्होंने अपने हृदय के भाव जैसे बने टीका करते समय सरलतया वैसे ही लिख दिये हों। एक तरफ तो उनको सूत्रों में आये हुए शब्दों को तोड़ मरोड़ कर बदल देने अथवा उठा देने से अनन्त संसार परिभ्रमण का भय था ( कारण शास्त्रकारों का यही विधान है ) और दूसरी तरफ समय ने इतना अधिक परिवर्तन कर दिया था कि मद्य, मांस और मछली का व्यवहार जैन साधु तो क्या परन्तु श्रावक तक के लिये महा निषेध की वस्तु बन गई थी। ऐसी अवस्था मेंटीकाकार को ऐसे पाठों के सम्बन्ध में सिवाय इस प्रकार के कथन कर सकने के अन्य कोई उपाय ही नहीं था। खयाल होता है कि उस समय शायद मांस भोजन के व्यवहार के खिलाफ श्रावक समाज में इतनी सख्त मनाही की पावन्दी नहीं थी। अन्यथा कई श्रावकों के जीवन में मांस भोजन का जो सम्बन्ध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org