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________________ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! अभिक्खंसिमेदाऊ, जावइयं तावइयं पोग्गलं दलयाहि मा अट्टियाई” से सेबं वदन्तस्स परो आभहदुअन्तो पडिग हांसि बहअट्ठियं मंसं परिभाएता णिहटठू-दलएज्जा, तहागारं पडिगाहूंगं परिहत्थंसि परिमायंसि वा अफासूर्य अणेसणिज्जं लाभे सन्ते जावणो पडिगाहेज्जा से आहच पडिगाहिए सिया संणो " ही " तिवएज्जा | णो 'अणहि' तिवइज्जा | से त मायाए एगंत मवकमेज्जा, अहे आरामं सिवा अहे अवस्सयसि वा अप्पं डिए जाव अप्पसताणाए मंसगं मच्छगं भेज्जा अट्ठियाइ कंटए गहापसे त मायार एगंत मवक में भेज्जा अहेग्झामंथडिलंसिवा जाव पमज्जिय परिवेटुज्जा । " १७० भावार्थ:- कदाचित मुनि को कोई मनुष्य निमन्त्रण करके कहे कि हे आयुष्मन् मुने! तुम बहुत हड्डियों वाला मांस चाहते हो ? तो मुनि यह वाक्य सुन कर उसको उत्तर दे कि हे आयुष्मन् या हे बहिन ! मुझे बहुत हड्डियों वाला मांस नहीं चाहिये यदि तुम वह मांस देना चाहते हो तो जो भीतर की खाने योग्य चीज है वह मुझे दे दो, हड्डियां मत दो। ऐसा कहते हुए भी गृहस्थ यदि बहुत हड्डियोंवाला मांस देने के लिये ले आवे तो मुनि उसको उसके हाथ या पात्र ( वर्तन ) में ही रहने दे, लेवे नहीं । यदि कदाचित वह गृहस्थ उस बहुत हड्डियोंवाले मांस को मुनि के पात्र में झट डाल देवे तो मुनि गृहस्थ को कुछ न कहे किन्तु ले जाकर एकान्त स्थान में पहुँच कर जीव जन्तु रहित बाग या उपाश्रय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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