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१६८ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! सकता। लोलुपीपन का आक्षेप यदि बन सकता है तो इस पाठ में आये हुए दूध, दही, मद्य, मांस आदि सब पदार्थों के सम्बन्ध में एकसा बन सकता है। केवल मद्य मांस के लिये लोलुपीपन का आक्षेप लगाना मूल सूत्र के पाठ के अभिप्राय से विरुद्ध है।
आचारांग सूत्रके इसी १० वें अध्यन के ६ वें उद्देश में भी एक पाठ है। जो इस प्रकार है___“से भिक्खुवा जाव समाणे सेन्जं पुव्वं जाणेज्जा मंसं वा मच्छंवा भन्जिज्ज माणं प ए तेल्ल पूययं बा आए साए उबक्खडिज्जमाणं पेहाएणों खंद खद्धणोउवसंकमित्तु ओमासेज्जा। णन्नत्थ गिलाणणीसाए ।” ___ भावार्थः- मुनि किसी मनुष्य को मांस अथवा मछली भूजता हुआ देख कर या मेहमान के लिये तेल में तलती हुई पूड़ियां देख कर उनके लेने के लिये जल्दी दौड़कर उन चीजों की याचना नहीं करे। यदि किसी रोगी ( बीमार ) मुनि के लिये उन चीजों की आवश्यकता हो तो बात अलग है। ___इस पाठ में शास्त्रकार का अभिप्राय साफ है कि साधु लोभाशक्त वना हुआ मांस मछली और तेल के पुड़ों की याचना करने के लिये जल्दी जल्दी दौड़ता हुआ न जावे। रोगी साधु के लिये शास्त्रकार ने जल्दी जल्दो जाने की छूट दी है। यदि साधु लोभाशक्त न बना हुवा स्वाभाविक गति से चलता हुवा
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