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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
ही मानते हैं, परन्तु इन दोनों के विचारों और प्रचार में रात-दिन का अन्तर है। मूर्तिपूजक और स्थानकवासियों के विचारों में केवल मूर्ति-पूजा के विषय को छोड़ कर दान-दया आदि विषयों में पूर्ण सादृश्य है । तेरापंथ मत स्थानकवासियों में से निकला हुआ है इसलिये मूर्ति पूजा के विषय में इनके विचार स्थानकवासियों जैसे ही हैं परन्तु दान, दया के विषय में सर्वथा भिन्न हैं । स्थानकवासी भूखप्यास से मरते प्राणी को सामाजिक व्यक्ति द्वारा अन्न-पानी की सहायता से बचाने में पुण्य मानते हैं और तेरापंथी ऐसा करने में एकान्त पाप मानते हैं। स्थानकवासी सार्वजनिक लाभ के कामों को निस्वार्थ भाव से करने में सामाजिक व्यक्ति को पुण्य हुआ मानते हैं और तेरापंथी एकान्त पाप मानते हैं । स्थानकवासी श्रावक माता-पिता की सेवा शुश्रूषा करने में पुण्य मानते हैं और तेरापंथी एकान्त पाप मानते हैं ।
बत्तीस सूत्रों के मूल पाठ को अक्षर अक्षर सत्य मानने में तीनों का एक मत है, ऐसा कहा जा सकता है। सूत्र ८४ को छोड़कर ४५ माने गये और ४५ में से १३ में स्वार्थी लोगों के प्रक्षेप का दोष लगा कर ३२ माने जाने लगे । भविष्य में और भी कुछ में किसी तरह का दोष लागू किया जाकर कम संख्या में माने जाने लगें, ऐसा भी हो सकता है। मेरे लेखों के विषय में एक विद्वान एवं शास्त्रज्ञ मुनि महाराज से बातचीत
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