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जैन शास्त्रों की असंगत बातें! १०७ दो लेखकों से मेरा मतलब किन से हैं। आपको मालूम रहना चाहिये कि मैं पुस्तैनी जैन श्वेताम्बर तेरापन्थ मजहब का कट्टर श्रावक था मगर आपके इन दो गजब के लेखकों ने हनुमानजीके पाव रोम की तरह मेरा पाव पन्थ काट डाला। मुझे अब यह भय है कि कहीं मेरा रहा-सहा पन्थ ही न उड़ जाय। श्री भग्नहृदय' जी के लेखों को तो मै जैसे-तैसे हजम कर गया। मैंने सोचा कि चलो साधुओं की क्रिया-कलाप और आचरण दुरुस्त नहीं रहे हों तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं, पंचम काल है, हुन्डा सर्पिणी का समय है, मगर श्री बच्छराजजी सिंघी के लेखों ने तो मेरा पंथ ही उड़ाना प्रारम्भ कर दिया। अब तो मैं देख रहा हूं, यह पौने तेरह भी कायम रहना कठिन हो रहा है। मुझे यह पूर्ण विश्वास था कि हमारे पूज्यजी महाराज, जो शास्त्र फरमाते हैं, वे सोलह आना ठीक और अक्षर अक्षर सत्य हैं मगर सिघीजी के लेखों ने तो आँखों की पट्टी खोल दी। सम्भवतः मुंह की पट्टी भी–जो कभी कभी लगा लेता हूं, अब खतरे
___ हमारे पन्यजी महाराज जब थली प्रान्त में बिराजते हैं, तब अक्सर मैं सेवा में साथ साथ रहता हूं। मैं देख रहा हूं, जब से यह शास्त्रों की बातें 'तरुण' में आने लगी हैं, हमारे मोटके सन्त आपके 'तरुण' की इन्तजारी में बाट जोहते रहते हैं। इधर कुछ समय से आपके 'तरुण' ने भी नखरे से पेश कदमी शुरू कर दी है। 'तरुण' के पहुंचते ही मोटके सन्तों की मीटिंग होने लगती है।
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