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जितना मूल भाग है, वह भी श्वेतास्वर-संप्रदाय में प्रचलित मूल पाठ की अपेक्षा कुछ न्यूनाधिक या कहीं-कहीं रूपान्तरित भी हो गया है।
• "नमुक्कार, करेमि भंते, लोगस्स, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, इरियावहियाए, चत्तारि मंगलं, पडिक्कमामि एगविहे, इणमेव निग्गन्थ पावयणं तथा वंदित्त के स्थानापन्न अर्थात् श्रावक-धर्म-सम्बन्धी सम्यक्त्व, बारह व्रत, और संलेखना के अतिचारों के प्रतिक्रमण का गद्य भाग", इतने मूल 'आवश्यक-सूत्र' उक्त दो दिगम्बर-ग्रन्थों में हैं ।
इन के अतिरिक्त, जो 'बृहत्प्रतिक्रमण'-नामक भाग लिखित प्रति में है, वह श्वेताम्बर-संप्रदाय-प्रसिद्ध पक्खिय सूत्र से मिलता-जुलता है । हम ने विस्तार-भय से उन सब पाठों का यहाँ उल्लेख न करके उन का सूचनमात्र किया है। मूलाचारगत 'आवश्यक-नियुक्ति' की सब गाथाओं को भी हम यहाँ उद्धत नहीं करते । सिर्फ दो-तीन गाथाओं को दे कर अन्य गाथाओं के नम्बर नीचे लिखे देते हैं, जिस से जिज्ञासु लोग स्वयं ही मूलाचार तथा 'आवश्यक-नियुक्ति' देख कर मिलान कर लेंगे।
प्रत्येक 'आवश्यक' का कथन करने की प्रतिज्ञा करते समय श्रीवट्टकेर स्वामी का यह कथन कि “ मैं प्रस्तुत 'आवश्यक' पर नियुक्ति कहूँगा" (मूलाचार, गा० ५१७, ५३७,५७४, ६११, ६३१, ६४७), यह अवश्य अर्थ-सूचक है; क्योंकि संपूर्ण मूलाचार में 'आवश्यक' का भाग छोड़ कर अन्य प्रकरण में 'नियुक्ति' शब्द एक आध जगह आया है । षडावश्यक के अन्त
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