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( १८ )
भाव-आवश्यक यह लोकोत्तर-क्रिया है ; क्योंकि वह लोकोत्तर (मोक्ष) के उद्देश्य से आध्यात्मिक लोगों के द्वारा उपयोगपूर्वक की जाने वाली क्रिया है। इस लिये पहले उस का समर्थन लोकोत्तर (शास्त्रीय व निश्चय) दृष्टि से किया जाता है और पीछे व्यावहारिक दृष्टि से भी उस का समर्थन किया जायगा । क्योंकि 'आवश्यक' है लोकोत्तर-क्रिया, पर उस के अधिकारी व्यवहारनिष्ठ होते हैं।
जिन तत्त्वों के होने से ही मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों के जीवन से उच्च समझा जा सकता है और अन्त में विकास की पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है; वे तत्त्व ये हैं:--
(१) समभाव अर्थात् शुद्ध श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र का संमिश्रण; (२) जीवन को विशुद्ध बनाने के लिये सर्वोपरि जीवन वाले महात्माओं को आदर्शरूप से पसन्द करके उन की ओर सदा दृष्टि रखना; (३) गुणवानों का बहुमान व विनय करना; (४) कर्त्तव्य की स्मृति तथा कर्तव्य-पालन में हो जाने वाली गलतियों का अवलोकन करके निष्कपट भाव से उन का संशोधन करना और फिर से वैसी गलतियों न हों, इस के लिये आत्मा को जागृत करना; (५) ध्यान का अभ्यास करके प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को यथार्थ रीति से समझने के लिये विवेक शक्ति का विकास करना और (६) त्याग-वृत्ति द्वारा संतोष व सहनशीलता को बढ़ाना।
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