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( १५ )
द्वारा पाप तक धर्म
कायोत्सर्ग की योग्यता प्रतिक्रमण कर लेने पर ही आती है । इसका कारण यह है कि जब तक प्रतिक्रमण की आलोचना करके चित्त-शुद्धि न की जाय, तब ध्यान या शुक्लध्यान के लिये एकाग्रता संपादन करने का, जो कायोत्सर्ग का उद्देश्य है, वह किसी तरह सिद्ध नहीं हो सकता । आलोचना के द्वारा चित्त-शुद्धि किये विना जो कायोत्सर्ग करता है, उस के मुँह से चाहे किसी शब्द - विशेष का जप हुआ करे, लेकिन उस के दिल में उच्च ध्येय का विचार कभी नहीं आता । वह अनुभूत विषयों का ही चिन्तन किया करता है ।
कायोत्सर्ग करके जो विशेष चित्त-शुद्धि, एकाग्रता और आत्मबल प्राप्त करता है, वही प्रत्याख्यान का सच्चा अधिकारी है । जिस ने एकाग्रता प्राप्त नहीं की है और संकल्प-बल भी पैदा नहीं किया है, वह यदि प्रत्याख्यान कर भी ले तो भी उस का ठीक-ठीक निर्वाह नहीं कर सकता । प्रत्याख्यान सब से ऊपर की ' आवश्यक - क्रिया' है। उस के लिये विशिष्ट चित्त-शुद्धि और विशेष उत्साह दरकार है, जो कायोत्सर्ग किये विना पैदा नहीं हो सकते । इसी अभिप्राय से कायोत्सर्ग के पश्चात् प्रत्याख्यान रक्खा गया है ।
इस प्रकार विचार करने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि छह 'आवश्यकों' का जो क्रम है, वह विशेष कार्य-कारण-भाव की शृङ्खला पर स्थित है। उस में उलट-फेर होने से उस की वह स्वाभाविकता नहीं रहती, जो कि उस में है ।
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