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________________ ( १३ ) प्रत्याख्यान का दूसरा नाम गुण-धारण है, सो इस लिये कि उस से अनेक गुण प्राप्त होते हैं । प्रत्याख्यान करने से आसव का निरोध अर्थात् संवर होता है । संवर से तृष्णा का नाश, तृष्णा के नाश से निरुपम समभाव और ऐसे समभाव से क्रमशः मोक्ष का लाभ होता है । I क्रम की स्वाभाविकता तथा उपपत्तिः - जो अन्तर्दृष्टि वाले हैं, उन के जीवन का प्रधान उद्देश्य समभाव - सामायिक प्राप्त करना है । इस लिये उन के प्रत्येक व्यवहार में समभाव का दर्शन होता है । अन्तर्दृष्टि वाले जब किसी को समभाव की पूर्णता के शिखर पर पहुँचे हुए जानते हैं, तब वे उस के वास्तविक गुणों की स्तुति करने लगते हैं । इसी तरह वे समभाव स्थित साधु पुरुष को वन्दन - नमस्कार करना भी नहीं भूलते । अन्तर्दृष्टि वालों के जीवन में ऐसी स्फूर्ति - अप्रमत्तता होती है कि कदाचित् वे पूर्ववासना - वश या कुसंसर्ग -वश समभाव से गिर जायँ, तब भी उस अप्रमत्तता के कारण प्रतिक्रमण करके वे अपनी पूर्व-प्राप्त स्थिति को फिर से पा लेते हैं और कभी-कभी तो पूर्व स्थिति से आगे भी बढ़ जाते हैं । ध्यान ही आध्यात्मिक जीवन के विकास की कुंजी है । इस के लिये अन्तर्दृष्टि वाले बार बार ध्यान - कायोत्सर्ग किया करते हैं । ध्यान द्वारा चित्त-शुद्धि करते हुए वे आत्मस्वरूप में विशेषतया लीन हो जाते हैं । अत एव जड वस्तुओं के भोग का परित्याग - प्रत्याख्यान भी उन के लिये साहजिक क्रिया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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