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((२) अविरति, कषाय (३) और (४) अप्रशस्त योग, इन चार का प्रतिक्रमण करना चाहिये । अर्थात् मिथ्यात्व छोड़ कर सम्यक्त्व को पाना चाहिये, अविरति का त्याग कर विरति को स्वीकार करना चाहिये, कषाय का परिहार करके क्षमा आदि गुण प्राप्त करना चाहिये और संसार बढ़ाने वाले व्यापारों को छोड़ कर आत्म-स्वरूप की प्राप्ति करनी चाहिये। __सामान्य रीति से प्रतिक्रमण (१) द्रव्य और (२) भाव, यों दो प्रकार का है। भावप्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्यप्रतिक्रमण नहीं । द्रव्यप्रतिक्रमण वह है, जो दिखावे के लिये किया जाता है । दोष का प्रतिक्रमण करने के बाद भी फिर से उस दोष को बार बार सेवन करना, यह द्रव्यप्रतिक्रमण है। इस से आत्म-शुद्धि होने के बदले धिठाई द्वारा और भी दोषों की पुष्टि होती है । इस पर कुम्हार के बर्तनों को कंकर के द्वारा बार बार फोड़ कर बार बार माफी मांगने का एक क्षुल्लक-साधु का दृष्टान्त प्रसिद्ध है।
(५) धर्म या शुल्क-ध्यान के लिये एकाग्र हो कर शरीर पर से ममता का त्याग करना 'कायोत्सर्ग' है । कायोत्सर्ग को यथार्थरूप में करने के लिये उस के दोषों का परिहार करना चाहिये । वे घोटक आदि दोष संक्षेप में उन्नीस हैं (आ०-नि०, गा० १५४६-१५४७)।
कायोत्सर्ग से देह की जडता और बुद्धि की जडता दूर होती है, अर्थात् वात आदि धातुओं की विषमता दूर होती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org