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परिशिष्ट ।
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* तुह पच्छण न हु होइ विहलु जिण जाणउ किं पुण, हउँ दुक्खिय निरु सत्तचत्त दुक्कहु उस्सुयमण । तं मन्नउ निमिसेण एउ एउ वि जइ लब्भइ, सच्चं जं भुक्खियक्सेण किं उंबरु पच्चइ ॥२७॥
अन्वयार्थ- 'जिण' हे जिन ! 'जाणउ' [मैं जानता हूँ कि 'तुह पच्छण' तुप से की गई प्रार्थना 'हु' नियम से 'विहलु न होइ' निष्फल नहीं होती । 'हउँ' मैं 'निरु' अवश्य "दुक्खिय' दुःखित 'सत्तचत्त' शक्ति-रहित 'दुक्हु' बदशकल और 'उस्सुयमण' उत्सुक हूँ, 'तं' इस वजह से 'जइ मन्नउ' अगर मैं यह ] मानता हूँ कि 'निमिसेण' पलक मारते ही 'एउ एउ वि लब्भइ' अमुक-अमुक प्राप्त होवे 'किं पुण' तो फिर क्या हुआ? 'सच्चं जं' यह सत्य है कि 'भुक्खियवसेण' भूख की वजह से 'किं उंबरु पच्चइ' क्या उदम्बर पकता है? ॥२७॥
भावार्थ-हे जिन ! मैं यह जानता हूँ कि आप से की गई प्रार्थना व्यर्थ नहीं जा सकती, तो भी मैं दुःखित हूँ, निर्बल हूँ और फल-प्राप्ति का अतिशय लोलुपी हूँ; इस लिये अगर यह समयूं कि मुझे अमुक-अमुक फल अभी हाल मिले जाते हैं, तो इस में क्या आश्चर्य ? हाँ! यह ठीक है कि भूख की वजह से उदम्बर जल्दी थोड़े ही पक सकते हैं ? ॥२७॥ * तव प्रार्थना न खलु भवति विफला जिन जानामि किं पुनः,
अहं दुःखितो निश्चितो सत्त्वत्यक्तोऽरोचक्युत्सुकमनाः। तेन मन्ये निमेषेणेदामेदमपि यदि लभ्यते, सत्यं यद्वभुक्षितवशेन किमुदम्बरः पच्यते ॥२७॥
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