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________________ परिशिष्ट । + हउँ बहुविहदुहतत्तगत्तु तुह दुहनासणपरु, हउँ सुयणह करुणिक्कठाणु तुह निरु करुणायरु । हउँ जिण पास असामिसालु तुहु तिहुअणसामिय, जं अवहीरहि मइ झखंत इय पास न सोहिय ॥ २३ ॥ ____ अन्वयार्थ-'हउँ मैं 'बहुविहदुहतत्तगत्तु' अनेक प्रकार के दुःखों से तप्त शरीर वाला हूँ, 'तुह' तुम 'दुहनासणपरु दुःखों के नाश करने में तत्पर हो; 'हउँ' मैं 'सुयणह करुणिक्कठाणु सज्जनों की करुणा का पात्र हूँ, 'तुह' तुम 'निरु करुणायरु' निश्चय से करुणा की खानि हो; 'पास जिण' हे पार्श्व जिन ! 'हउँ' मैं 'असामिसालु' अनाथ हूँ, 'तुह' तुम 'तिहुअणसामिय' तीनों भुवनों के स्वामी हो; 'झखंत मई' विलाप करते हुए मेरो 'जं अवहीरहि' जो उपेक्षा करते हो 'पास' हे पार्श्व ! 'इय' यह 'न सोहिय' [ तुम्हें ] शोभा नहीं देता ॥२३॥ भावार्थ-हे पार्श्व जिन ! मेरा शरीर अनेक प्रकार के दुःखों से दुःखित है और तुम दुःखों के नाश करने में तत्पर रहते हो, मैं सज्जन पुरुषों की दया का पात्र हूँ और तुम दया के आकर हो, मैं अनाथ हूँ और तुम त्रिलोकीनाथ हो ; इस लिये मुझ को रोते हुए छोड़ देना, यह तुम्हें हरगिज़ शोभा नहीं देता ॥२३॥ . + अहं बहुविधदुःखतप्तगात्रस्त्व दुःखनाशनपरः, अहं सुजनानां करुणैकस्थानं त्वं निश्चितं करुणाकरः । अहं जिनपाव अस्वामिशालस्त्वं त्रिभुवनस्वामी, यदवधीरयसि मां विलपन्तमिदं पार्श्व न शोभितम् ॥२३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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