________________
परिशिष्ट ।
* किं किं कप्पिउ न य कलुणु किं किं व न पिउ, किं व न चिट्ठिउ कि? देव दीणयमवलंबिउ । कासु न किय निष्फल्ल लल्लि अम्हहि दुहत्तिहि, तह वि न पत्तउ ताणु किं पि पइ पहुपरिचतिहि ॥१९॥
अन्वयार्थ—'पइ पहुपरिचत्तिहि' तुम-सरीखे प्रभु को छोड़ देने वाले 'दुहत्तिहि अम्हेहि' दुःखों से व्याकुलित हमारे द्वारा 'दीणयमवलंबिउ' दीनता का अवलम्बन करके 'किं किं न य कप्पिउ' क्या-क्या कल्पित नहीं किया गया, 'किं किं व कलुणु न जपिउ' क्या-क्या करुणारूप बका नहीं गया, 'किं व किटटु न चिट्ठिउ' क्या-क्या क्लेशरूप च्यष्टा नहीं की गई [और] 'कासु' किन के सामने 'निप्फल्ल लल्लि न किय' व्यर्थ लल्लो-चप्पो नहीं की गई; 'तह वि' तो भी 'किं पि कुछ भी 'ताणु न पत्तर शरण न पाई ॥१९॥ ___ भावार्थ हे देव! तुम को छोड़ कर और दुःखों को पा कर मैं ने क्या-क्या तो मन में कल्पनाएँ न की, वाणी से क्या-क्या दीन वचन न बोले, क्या-क्या शरीर के क्लेश न उठाये और किसकिस की लल्लो-चप्पो न की; लेकिन सब निष्फल गई और कुछ भी परवरिश न पाई ॥१९॥ * किं किं कल्पितं न च करुणं किं किं वा न जल्पित, किं वा न चेष्टितं क्लिष्टं देव दीनतामवलम्ब्य । कस्य न कृता निष्फला लल्ली अस्माभिःखातः, तथाऽपि न प्राप्त त्राणं किमपि पते प्रभुपरित्यक्तः ॥ १९ ॥
Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org