SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट । * पई पासि वियसंतनित्तपत्तपवित्तिय,बाहपवाहपवूढरूढदुहदाह सुपुलक्ष्य । मन्नइ मन्नु सउन्नु पुन्नु अप्पाणं सुरनर, इय तिहुअणआणंदचंद जय पास जिणेसर ॥११॥ ___ अन्वयार्थ--'पई पासि' तुम्हें देख कर 'वियसतानित्तपत्तंतपवित्तियबाहपवाहपवूढरूढदुहदाहः खिले हुए नेत्ररूप पत्तों से निकलती हुई आसुओं की धारा द्वारा धुल गये हैं चिरसंचित दुःख और दाह जिन के, ऐसे [अत एव. 'सुपुलइय सुरनर' पुलकित हुए देव और मनुष्य 'अप्पाण अपने-आप को 'मन्नु सउन्नु पुन्नु' मान्य, भाग्यशाली और प्रतिष्ठित 'मन्नइ' मानते हैं, 'इय' इस लिये 'तिहुअणआणंदचंद पास जिणेसर' हे तीन लोक के आनन्द-चन्द्र पाच जिनेश्वर ! 'जय' [तुम्हारी जय हो ॥११॥ भावार्थ-हे पाव! क्या सुर और क्या नर, कोई भी जब तुम को देख लेते हैं तो उन की आँखें खिल जाती हैं, उन से आसुओं की धारा बह निकलती है और चित्त पुलकित-प्रफुल्लित हो जाता है । मानो उन आसुओं के द्वारा उन के चिर-संश्चित दुःख और ताप ही धुल गये हों । अतः दर्शक अपने-आप को भाग्यशाली, मान्य और पुण्यात्मा समझने लगते हैं । इसी लिये तुम 'त्रिभुवन-आनन्द-चन्द्र हो । हे जिनेश्वर! तुम्हारी जय हो ॥११॥ * पतिं दृष्टवा विकसन्नेत्रपत्रान्तःश्रवर्तित:बाष्पप्रवाहप्लावितरूढदुःखदाहाः सुपुलकिताः। मन्यन्ते मान्य सुपुण्यं पुण्यमात्मानं सुरनराः, इति त्रिभुवनानन्दचन्द्र जय पाच जिनेश्वर ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy