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प्रतिक्रमण सूत्र।
* तइ समरंत लहंति झत्ति वरपुत्तकलत्तइ ,
धण्णसुवण्णहिरण्णपुण्ण जण मुंजइ रज्जइ। पिक्खइ मुक्खअसंखसुक्ख तुह पास पसाइण , इअ तिहुअणवरकप्परुक्ख सुक्खइ कुण मह जिण ॥
अन्वयार्थ-'जण' प्राणी 'तई' तुम्हारा 'समरंत' स्मरण करते ही 'झत्ति' शीघ्र 'वरपुत्तकलत्तइ' सुन्दर-सुन्दर पुत्र, औरत आदि 'लहंति' पाते हैं, 'धण्णसुवण्णहिरण्णपुण्ण' धान्य, सोना, आभूषणों से भरा हुआ 'रज्जई' राज्य 'भुंजइ' भोगते हैं, 'पास' हे पार्श्व ! 'तुह पसाइण' तुम्हारे प्रसाद से 'असंक्खसुक्ख मुक्ख' अगणित सुख वाली मुक्ति को 'पिक्खइ' देखते हैं, 'इ' इस लिये 'जिण' हे जिन ! [तुम] 'तिहुअणवरकप्परुक्ख' तीनों लोकों के लिये उत्कृष्ट कल्पवृक्ष के समान हो [अतः] 'मह सुक्खइ कुण' मेरे लिये सुख करो ॥२॥
भावार्थ-हे जिन ! मनुष्य तुम्हारा स्मरण करने से शीघ्र ही उत्तम-उत्तम पुत्र, औरत बगैरह को प्राप्त करता है और धान्य, सौना, आभूषण आदि संपत्तियों से परिपूर्ण राज्य का भोग करता है । हे पार्श्व ! तुम्हारे प्रसाद से मनुष्य अगाणित सौख्य वाली मोक्ष का अनुभव करता है । इस लिये आप 'त्रिभुवनवरकल्पवृक्ष' कहलाते हो । अतः मेरे लिये सुख करो॥२॥ * त्वां स्मरन्तो लभन्ते झटिति वरपुत्रकलत्रानि, धान्यसुवर्णहिरण्यपूर्णानि जना भुञ्जन्ते राज्यानि । पश्यन्ति मोक्षमसंख्यसौख्यं तव पार्श्व प्रसादेन, इति त्रिभुवनवरकल्पवृक्ष सौख्यानि कुरु मम जिन ॥२॥
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